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गोचर हो रही हैं, या जो अनागत के प्रति आस्था और अनास्था के सेतु निर्मित कर रही हैं, वे सब-की-सब पूर्व नियत थीं, पूर्व नियत हैं और पूर्व नियत ही होंगी। नियति से पृथक् कुछ नहीं है। ज्ञान-ज्योति से दीप्त चेतना का धनी साधक सहज भाव से कर्ता नहीं, अपितु द्रष्टा बनकर घटना-प्रवाह को तटस्थ दृष्टि से निहारता चला जाता है। वह देखता कि अणु-अणु का स्पन्दन भी पूर्व नियत है। भाव-भूमि की ऊर्जा और उष्मा के सारे तरंग पूर्व नियत हैं। जीवन-मृत्यु की सारी क्रीड़ाएँ पूर्व नियत हैं। काल का अवाध रथ-चक्र किस ओर किस गति से चलता है, इसे कौन कह सकता है ? मोहमढ़ व्यक्ति स्वयं के परिकल्पित कर्तृत्व-बोध के अहं में एक फूली हुई लाश की तरह इस संसार-सागर में डबता-उतराता रहता है। वह विस्फारित नेत्रों से महाकाल के नर्तन को देखता है और व्यग्र होकर सफलता और असफलता के द्वन्द्व पाश में उलझता जाता है। कभी हर्ष-हास्य तो कभी रोषरुदन। बस, इन्हीं दो बिन्दुओं पर उसकी भटकन होती रहती है। परन्तु प्रबद्धचेता वीतराग-ज्ञानी राग-विराग की, अर्थात् मोह और क्षोभ की तमाम सीमाओं और संभावित परिस्थितियों की उद्वेलन की गयी अवस्थाओं के पार चला जाता है और जगत के समग्र शुभाशुभ घटनाचक्रों के संबंधों में समत्व की आत्मलक्षी दिव्य-ज्योति का दर्शन करता है। वह संज्ञा एवं विशेषण की तमाम परिधियों से अपने को मुक्त कर लेता है। अन्दर और बाहर सृष्टि के तमाम रहस्यों में उसे एक पूर्व-निर्धारित क्रमबद्ध योजना परिलक्षित होती है। वह नियति के अखण्ड, अबाधित एवं अविच्छिन्न सत्य को आत्मस्थ कर, स्वयं में अनुभूत कर निर्विकल्प भाव के मौन केन्द्र में चञ्चलतामुक्त सुस्थिर हो जाता है। उसकी अहं से परिचालित वाचलता स्वयं समाप्त हो जाती है। जिस तरह गंगा गुड के स्वाद का विवरण प्रस्तुत करने में असमर्थ होता है, उसी तरह जगत के लीलामय रहस्यों की रसानुभूति का वर्णन इन्द्रियों के क्षुद्र उपकरणों के द्वारा कभी नहीं हो सकता। इसी अवाच्यता के सन्दर्भ में कभी कहा गया था
"गूंगे का गुड है भगवान, बाहर-भीतर एक समान।"
प्रज्ञावान जीव को यह ज्ञात है कि जो कुछ भी घटित हो रहा है अथवा होने वाला है--उसमें अकस्मात् जैसा कुछ नहीं है। द्रव्य चाहे जड़ हो अथवा चेतन, जिसका जो भी पर्याय, परिणति, गति, स्थिति एवं परिवर्तन जिस काल और जिस क्षेत्र में, जिस अनुकूल या प्रतिकूल निमित्त एवं साधन से होना होता है, वह हो कर रहता है। क्यों? क्योंकि सब कुछ व्यवस्थित है। चर्म-चक्षुओं को ऐसा लगता है कि यह सारा-का-सारा हर्ष-विषाद, संयोग-वियोग, हानि-लाभ आदि का बिखराव तत्काल घटित होने वाली, क्रियमाण परिस्थितियों के प्रभाव से हो रहा है। पर ऐसा कुछ नहीं है। तत्त्वदृष्टि से संपन्न मनीषी साधक को इस बात का पता है कि वह सब पूर्वनियत है। अकस्मात् जैसा कुछ नहीं है। व्यक्ति स्वयं हो, या अन्य कोई हो, वह नियति के अनुरूप इधर या उधर निमित्त तो हो सकता है, अन्य कुछ नहीं।
राम का जिस वक्त वनवास होता है, भरत व्याकुल हो जाते हैं। वनवास में निमित्तभत अपनी माता कैकेयी पर रुष्ट होते हैं। किन्तु विक्षुब्ध भरत को नियति के परिप्रेक्ष्य में सान्त्वना देते हुए महर्षि वशिष्ठ समाधान देते हैं
"सुनह भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेउ मुनि नाथ । हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ ॥"
इस प्रकार के दो-चार क्या, हजारों और भी ऐसे अनेक प्रमाण हैं, जो नियति की महालीला का दिगदर्शन कराते हैं। वर्तमान काल की दृष्टि में अनुपस्थित अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ सर्वदर्शी सर्वोत्तमों की बात छोड़ भी दी जाय, तब भी सिद्धयोग और ज्योतिष-शास्त्र आदि भवितव्यता का अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। ध्याताओं की परिशुद्ध अनुभूति में जब भी जो कुछ भी भावी कार्य प्रतिबिम्बित हआ है, वह आगे चलकर निर्दिष्ट समय पर बिन्दु मात्र भी हेर-फेर के बिना सम्पादित हुआ है। उन मंतव्यों के क्रियान्वयन में जब भी कभी भूलें हुई हैं, उसका कारण प्रवक्ता का विद्यागत अल्पज्ञत्व एवं प्रमाद ही रहा है। सैद्धान्तिकता में कहीं प्रमाद नहीं है। स्खलित चिन्तना से बुद्धि में प्रमाद उत्पन्न होता है और वह प्रमाद ही घोषित निर्णय की विपरीतता में हेतू होता है।
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सागर, नौका और नाविक
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