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________________ अनन्तानन्त अतीत से काल की अविराम यात्रा जीवन के कटु-मृदु अनुभवों को प्राण में स्पंदित करती हुई चल रही है। न जाने कितने घात-प्रतिघात, उत्थान-पतन और सृजन-संहार की कथा - यात्रा अतीत के स्मृति - प्रदेश को आन्दोलित कर रही है । कहीं सब कुछ अनजाने ही घटता चल गया है । उद्भव, स्थिति और संहार का अलक्ष्य कौतुक, जिज्ञासा की परत-दर-परत अपने ज्ञानकोष में समेट रही है। पर, यह एक ऐसा चक्र है, जिसके निर्णायक बिंदु का साधारण जन-मन को कहीं पता नहीं है ? अरमानों की एक सजी-संवरी आस्था को ले कर मनुष्य विकास की धारा में गतिमान होने को प्रस्तुत होता है, पर उसके हर पदक्षेप में नियति की एक अदृष्ट महाशक्ति इस रूप में खड़ी रहती है कि मानव की संकल्पित इच्छा एवं योजना के विपरीत वह जिधर भी मोड़ देती है, उधर ही उसे मुड़ जाना पड़ता है। जिन भग्न सेतुओं के साथ वह जोड़ दे, वहाँ उसे जुड़ जाना पड़ता है। ऐसा लगता है कि बिखरे हुए तमाम मंतव्य अभी-अभी पकड़ में आ जायेंगे, पर शीघ्र ही वे ऐसे छूट जाते हैं, उनके अस्तित्व का भी कहीं अता-पता नहीं रहता । समय की वेगवती धारा उन तमाम मंतव्यों को बहाये लिए जाती है और हम लुटे-लुटे-से, हतप्रभ हो किनारे पर असहाय खड़े रह जाते हैं । आँखों की कोरों में छलक आयी दो बूंदें भी साहचर्य सुख नहीं दे पातीं और तत्कालीन वेदना की स्पंदनहीन अवस्था में उसे ढुलकते देखकर हम शून्य में ताकते रह जाते हैं । कहीं चीड़-वन से छनती हुई चाँदनी प्रिय के अवसादग्रस्त मुखमण्डल पर पड़ती है और सहसा अतीत की अनथक स्मृतियाँ पीड़ा के पट खोल देती हैं । हम नहीं चाहते, पर फिर भी कोई कोयल अरण्य के कोने में कुहकमयी वाणी बोल उठती है । उक्त स्थिति-चित्र पर से स्पष्ट है कि काल के इस लीला चक्र में जो कुछ भी हो रहा है, वह सब-कासब पूर्व नियत है । कहीं कुछ अपने आग्रह का करणीय नहीं है । पूर्व नियत प्रक्रिया में सबको चलना है । काल की गति बड़ी निर्मम है । उस की राहें कहीं सम हैं, तो कहीं विषम हैं । परदे के पीछे नियति की अविराम लीला जारी है। अबोध मन-मस्तिष्क के व्यक्ति कहते हैं कि इसे हमने किया है । यह धन-सम्पत्ति हमारी है । यह परिवार - परिजन हमारे हैं। इसे मैंने बचाया है, और उसे मैंने मारा है । न जाने कितने व्यर्थ के दायित्व अपने क्षुद्र अहं पर लादे रहते हैं । मानव के जीवन- प्रांगण में कभी अनुकूल तो कभी प्रतिकूल, अनेकविध घटनाओं के संयोग-वियोग, मिलन और विछोह के कटु-मृदु अध्यायों का निर्माण हर क्षण होता रहता है । एक ओर जीवन संवेग की एक-एक कड़ियाँ जुड़ और दूसरी ओर पारद की भाँति न जाने कैसे बिखरती चली जाती हैं । चेतना का अन्तरंग मधुरिम प्रदेश अघटनीय को आत्मसात् करना नहीं चाहता है, पर न चाहने से क्या होता है ? अनचाहा भी सब-कुछ घटता चला जाता है। पलक अभी पूरी तरह खुल भी नहीं पाती है कि सपना टूट जाता है । मनुष्य चाहता, तो बहुतकुछ पर अनन्तः वह क्या और कितना पाता है, यह सभी के अपने-अपने जीवन क्षेत्र की प्रत्यक्ष अनुभूति है, जिसे यों ही नकारा नहीं जा सकता । ये प्रश्न हैं -- प्रश्नों के अम्बार हैं, जो मृग मरीचिका में दौड़ रहे हैं ? वह सागर कहाँ है, जो दृष्टि को साप्लावित कर सके ? सूर्य की सुनहली किरण रेत के ऊबड़-खाबड़ टीले पर पड़ती है और एक भ्रम दृष्टि में समा जाता है। एक तीव्र दौड़ चलती है, पर बीच राह में ही जीवन लीला समाप्त हो जाती है । यात्रा अधूरी रह जाती है । प्रश्न फिर पनपते हैं । यही क्रम है । यह क्रम निरवधि हैं । इसका कहीं कोई ओर-छोर नहीं है । एक अखण्ड श्रृंखला के रूप में सब कुछ पूर्व - नियत है । अतीत, अनागत और वर्तमान की सारी क्रियाएँ, दार्शनिक चिन्तन की सुनिश्चित 'नियति' नामक एक अदृश्य शक्ति के हाथों संचालित हैं । 'अहं करोमि ' रूप में व्यक्ति का कर्तृत्व-बोध, बोध नहीं, कल्पित अहंकार है । यह अहंकार जीवन को पीड़ित करता रहता है। अनागत के प्रति अनास्था उत्पन्न करता है । शाश्वत के प्रति शंका उत्पन्न करता है । जीवन को विभ्रम के मायाजाल में फंसा कर उपहासास्पद तांडव नृत्य करवाता रहता है। यह नृत्य की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती, और मनुष्य जल-बुद्बुद् के समान एक झटके में सहसा समाप्त हो जाता है । अतीत में जितनी क्रियाएँ सम्पादित हो गयी हैं, तथा जो प्रत्यक्ष वर्तमान की महालीला में अभी दृष्टि नियति का सर्वतोष दर्शन Jain Education International For Private Personal Use Only ३७ www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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