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________________ ईश्वर ही कैसा ? ईश्वर को अपनी विशेषता ही क्या रही ? उक्त धारणा में स्पष्ट ही आत्माओं के लिए त्रैकालिक दासत्व का भाव नियत है, जो जैन-दर्शन को स्वीकार नहीं है। जैन-दर्शन की ईश्वर-सम्बन्धी उक्त उदात्त विचारधारा के कारण अनेक दर्शनाचार्यों ने उसे अनीश्वरवादी कह कर हठात् नास्तिकों की परंपरा में खड़ा कर दिया है एवम् उसकी कटु आलोचनाएँ की हैं। परन्तु किसी ने भी तटस्थ दृष्टि से उसकी विकासोन्मुख समृद्ध भावचेतना पर विचार नहीं किया, जिसके फलस्वरूप वे जैनदर्शन की उदात्त आस्तिक दृष्टि को हृदयंगम करने में असफल रहे। मूलभूत सत्यों के प्रति दुराग्रह वृत्ति ने उसके 'आत्मा ही परमात्मा' के सिद्धान्त पक्ष को समझने एवम् आत्मविकास की अन्तिम सर्वोच्च स्थिति निर्धारित करने में काफी बाधाएँ खड़ी कीं, जिनके कारण ईश्वरीय सत्य से सम्बन्धित प्रजातांत्रिक उदात्त अवधारणाएँ एक शाश्वत बिन्दु पर आकर अवस्थित नहीं हो सकीं । यही कारण है कि वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक, सगुण और निर्गुण, इन्द्रियातीत और सर्वान्तर्यामी के मध्य के परम सत्य को सर्वसाधारण जन-मन के द्वारा सम्यक रूप से अधिगत नहीं किया जा सका विचारों के इस संक्रमण काल में जब जैन दर्शन ने ईश्वरीय सत्ता सम्बन्धी अपनी मान्यताओं को प्रस्तुत किया एवं तर्क- सम्मत विवेचना के द्वारा यह प्रतिपादित किया कि आत्मा ही ईश्वर है, तब एक बड़ी ही ऊहापोहजन्य स्थिति उत्पन्न हो गयी और एकान्त खण्डन-मण्डन के बाग-विलास में डूबे आचार्यों ने इसे नास्तिक कहना प्रारंभ कर दिया। स्पष्ट है, उक्त धारणा में धरती पर प्रत्यक्ष देखे गए एकतंत्र निरंकुश शासकों के शासन की प्रतिक्रिया प्रतिविम्बित है। । , परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। जैन दर्शन को नास्तिक धर्म का प्रवर्तक कहना, तटस्थ बुद्धि का परिचायक नहीं हैं। मुलतः जैन-दर्शन ईश्वर को मानता है और उसकी मान्यता अन्य दर्शनों की अपेक्षा व्यापक भी है और उपादेय भी मेरे यह कहने का तात्पर्य किसी भी दर्शन की अवहेलना करना नहीं है, वरन् जिज्ञासुओं को जैन दर्शन की चिन्तन-दष्टि की मीमांसा से अवगत कराना है। जैन दर्शन का ईश्वरीय बोध पौराणिक स्तर की मानवीय परिकल्पनाओं एवम् निराधार अनुमानों की अनिश्चितता से हमें परिचित कराता है एवम् ईश्वरसम्बन्धी स्पष्ट सत्य के बारे में हमें उन्मुक्त दृष्टि प्रदान करता है। ईश्वर को मानने के सम्बन्ध में अन्य दर्शनों से भिन्न जैन दर्शन की जो मान्यता है, वह यह है कि जीव स्वयं ही ईश्वर है । जीव से अलग उसके स्वामी के रूप में ईश्वर का कोई अन्य स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है । आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही ईश्वरत्व है। "अप्पा खलु परमप्पा" - आत्मा ही परमात्मा है। राग-द्वेष एवम् विकारों से युक्त आत्मा का अशुद्ध रूप जीव, जीव यानी संसारी आत्मा है और विकार रहित शुद्ध स्वरूप परमात्मा है। आत्मा ही पवित्रता के अन्तिम बिन्दु पर परमात्मा हो जाता है। जैन दर्शन की लाक्षणिक भाषा के अनुसार “सोया हुआ ईश्वर जीव है और जागृत जीव ईश्वर है।" जब आत्मा राग, द्वेष और मोह की नींद में सोई रहती है, तब उसका स्वरूप संसारी जीव का होता है और उनसे मुक्त होते ही वह सर्वोच्च शुद्ध, पवित्र यानी परम हो जाती है। शुद्धता की दृष्टि से देखा जाए, तो वास्तव में ईश्वर का यही शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार स्वरूप है । ईश्वरत्व व्यक्तिविशेष के रूप में कहीं बाहर नहीं है, और न वह आत्मा से सर्वथा अलग कोई शक्ति है । आत्मा का शुद्ध स्वभाव ही ईश्वरत्व है। जैन दर्शन इस सम्बन्ध में किसी भी अन्य भाव को स्वीकार नहीं करता। उसका यह विश्वतो मुखी गंभीर उद्घोष है कि विश्व का प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक जीव मूलतः ईश्वर है । जो अन्तर है, वह आवरण का है । घनाच्छन्न चन्द्र और सूर्य, अन्दर में चन्द्र-सूर्य ही हैं । कुछ और नहीं हैं। आवरणमुक्त होते ही प्रकाश जगमगाने लगता है । यही स्थिति आत्मा की है । आवरण से मुक्त होते ही आत्मा का अनंत प्रकाश उद्भासित हो जाता है, और वह परम अर्थात् शुद्ध परमात्मा हो जाता है। यह है वह जैन दृष्टि, जो आत्मस्वरूप की दृष्टि से ईश्वर और मनुष्य को एक बिन्दु पर केन्द्रित करती है और भवचक्र में भ्रमणशील प्राणियों को अपने में अनादिकाल से सुप्त परमात्म-स्वरूप को जागृत करने के लिए ईश्वरीय स्वरूप का शुद्ध दार्शनिक विवेचन प्रस्तुत करती है। जैन दर्शन ईश्वर की शासकता पर नहीं, पवित्रता पर बल देता है, जो प्रत्येक मानव साधना के द्वारा प्राप्त कर सकता है। जैन उपासना पद्धति भी इसी विचार बिन्दु पर प्रतिष्ठित हुई है । भगवदात्माओं की उपासना साधक को अपने मूल शुद्ध स्वरूप का बोध कराने के लिए है। पवित्रात्माओं के पुण्य स्मरण से अपने में भी वह परम पवित्र भाव उद्बुद्ध हो, यही है जैनों की ईश्वरीय उपासना का मूल मर्म । २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only सागर, नौका और नाविक www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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