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लब्धि का समुचित मार्ग ज्यों ही अधिकृत होता है, तर्क समाप्त हो जाते हैं, सम्यक्-ज्ञान प्रकाशमान हो जाता है, और भाव का अमृत सागर हिलकोरें मारने लगता है। यही तत्त्व का सम्यक्-दर्शन है, यही यथार्थ की तत्त्व-दृष्टि है और यही है बन्धमुक्ति की यात्रा का प्रस्थान बिन्दु, और चेतना के ऊर्ध्वारोहण का प्रथम सोपान । जिसके फलस्वरुप मनुष्य अतुल निधि का स्वामी बन पाया है, शाश्वत प्रदेश के गुह्य प्रान्तों का अन्वेषण कर पाया है।
भगवद्गीता में कृष्ण ने कहा है--"श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्" श्रद्धावान को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। आवश्यकता श्रद्धा की ही है। जीवन को उत्तरोत्तर विकास की दिशा में गतिशील रखने के लिए अन्तर में श्रद्धा का होना नितान्त आवश्यक है। यही वह पथ है, जिस पर चलकर सम्यक् रूपेण स्व-स्वरूप की, सत्य की उपलब्धि की जा सकती है। इस विभ्रान्तिजन्य काल को चिन्तन क नये आयाम दिये जा सकते हैं। बिखरती मानवता को शाश्वत शांति का मंगल संदेश सुनाया जा सकता है।
यह सम्यक्-ज्ञान ही मनुष्य की अन्तिम अभिलाषा है। यही धर्म है, जिसे धारण कर मनुष्य मनुष्य है। क्योंकि आहार आदि और सारे कार्य तो सभी योनियों में चलते रहते हैं। नीतिकार ने लिखा है
आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर् नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
अन्तर्यात्रा का प्रस्थान बिन्दु :
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