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बड़े कम्युनिस्ट चिन्तक से प्रश्न किया था कि 'हाथ बड़ा है या मस्तिष्क ?' चिन्तक ने कहा कि 'भाई ! बड़ा तो मस्तिष्क ही है।' इस पर पत्रकार ने प्रश्न किया कि--'फिर आप केवल हाथ को ही बड़ा क्यों मानते हैं ?' आखिर, चिन्तक को कहना पड़ा कि-'भाई, यह पार्टी का सिद्धान्त है । डार्विन के मत से भी, मस्तिष्क बड़ा है। क्योंकि उसका निर्माण पहले हुआ है।'
यह एक विसंगति है श्रम के क्षेत्र में—जो अभाव एवं यंत्रणा का कारण है। यह कम्युनिस्टों की सर्वथा भ्रान्त नीति है, जो एक किराणी एवं लेखक में फर्क नहीं समझती। वह साहित्यकार लेखक से भी किराणी का काम लेना चाहती है। परन्तु श्रम के नाम पर यह अन्ध ऐक्य समस्या का सही हल नहीं है। हमारी परम्परा, यथायोग्य व्यवहार और मर्यादा में विश्वास रखती है। इसी से विश्वास होता है, योग्य प्रतिभाओं का जन्म होता है। हमारे यहाँ श्रम के मानदण्ड हैं, उसकी सीढ़ियाँ हैं। हम उसका वर्गीकरण करके ही सही विश्लेषण कर सकते हैं। वैसे अगर नकारना ही हो, तो नजर टेढ़ी करके विद्वत्ता के साथ कुछ भी नकारा जा सकता है। पर विवेकवान लोग मूलभूत सत्य के प्रति विनयावनत होते हैं। और उसे बड़े आदर के साथ स्वीकार करते हैं। अगर व्यक्ति में विशिष्टता है, तो उसे आदर के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए। विशिष्टता को सामान्यता के साथ जोड़ना कथमपि संगत नहीं है। उससे हमारी प्राचीन संस्कृति की स्वर्णिम छवि धमिल होगी। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सब-कुछ बुद्धिजीवियों के चरणों में ही समर्पित कर दिया जाए। श्रमिक भूखा मरता रहे, और बुद्धिजीवी गुलछर्रे उड़ाता रहे। प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन और उसकी समस्या एक है, बुद्धिजीवियों को यथोचित सम्मान देते हुए भी आवश्यकता पूर्ति तो समय पर सबकी ही होनी चाहिए। अतएव श्रम के मूल्यों का और मूल्यों के श्रम का यथोचित विभाजन अपेक्षित है।
खाद्य समस्या का एक दूसरा पक्ष है--जिसे हम खाद्याखाद्य विचार कहते हैं। और, जिसे लोग भल बैठे हैं, जिसके कारण तामसी प्रवृत्तियाँ विकसित होती जा रही हैं। देश में न जाने कितने मक जानवरों की निर्मम हत्या कर मानव अपना उदर पोषण कर रहा है। यह कितनी मर्मान्तिक बात है कि अपना पेट भरने के लिए निरपराध जानवरों की हत्या कर दी जाए। मैं शुरू में कह आया हूँ प्राण अन्नगत हैं। इस प्राण में सामूहिक भावों का अगर उदय करना है, तो जीव-हत्या बन्द करनी होगी। देश के सामूहिक अभ्युत्थान एवं कल्याण को ध्यान में रखते हुए कृषि आदि प्रत्येक औद्योगिक क्षेत्र में मन लगाकर कठोर श्रम करना है, और तदुपरान्त शुद्ध सात्विक भोजन करना है, वह भी क्षधापूर्ति तक ही। पेट बनकर सब-कुछ ही उदरस्थ नहीं कर लेना है। भारतीय-संस्कृति में महाराना उदरंभरी महापापी माना गया है। हमारी संस्कृति का दिव्य घोष है--'लब्धभागा यथारूपम् ।' सबको अपना यथोचित भाग मिलना चाहिए। एक स्थान पर आवश्यकता से अधिक संग्रह, अन्यत्र अभाव का हेतु होता है, जो अनावश्यक, सर्वनाशी, वर्गसंघर्ष को जन्म देता है। इस सन्दर्भ में भगवान् महावीर की वाणी नहीं भूलनी चाहिए कि, 'असंविभागी न हु तसस मोक्खो।'
खाद्य समस्या हो या तत्सदश अन्य कोई अपेक्षा, बिना कठोर परिश्रम के समाधान का कोई अन्य विकल्प नहीं है। जीवन के उत्थान हेतु इस देश में बलिष्ठ भुजाओं की आवश्यकता है। दानव-सा सबल देह और देवताओं जैसे सुन्दर तथा सबल मस्तिष्क की आवश्यकता है। श्रम की चोरी और श्रम के मूल्य की चोरी, दोनों ही पाप हैं, मानव जाति के लिए घातक हैं। अतः न श्रम की चोरी करो और न श्रम के मूल्य की चोरी करो। दोनों ही स्थितियाँ समाज और राष्ट्र के विकास में बाधक हैं।
आकाश में विश्वयुद्ध के बादल मंडरा रहे हैं। कुछ विदेशी ताकतें जानते हो, इस देश की गौरवमय संस्कृति को ध्वस्त कर देना चाहती हैं। इन सबसे अगर भारतीय धर्म, संस्कृति और समाज को त्राण दिलाना है, तो विवेकपूर्वक जनमंगलकारी श्रम अपनी अपनी स्थिति के अनुसार करना ही होगा। यही श्रमण-संस्कृति की महान् शिक्षा है । यही श्रमण भगवान महावीर की सर्व-जनहित देशना है। यही वह पक्ष है, जिसका कोई विकल्प नहीं है। श्रमण अर्थात् श्रम का पुरस्कर्ता महावीर श्रमण हैं। अन्दर और बाहर दोनों ही जगत् में श्रम के लिए पुरुषार्थ एवं पराक्रम के लिए उनका उपदेश है। यथोचित दिशा में यथोचित श्रम के बिना न कहीं मुक्ति है और न कहीं भुक्ति ।
खाद्य समस्या : समाधान की खोज में
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