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________________ प्राचीनतम धर्म-शास्त्रों तक के अनुसार हर प्राणी के प्राण अन्नगत हैं। अन्न के बिना देह में प्राण का रह पाना असंभव है। यह समस्या कोई नवीन नहीं है। 'अन्नं वै प्राणाः' का शंखनाद बहुत पुराना है। पर, फिलहाल यह कुछ विकट रूप धारण किए हुए है। पूरे देश में यह जो वैषम्य दीख रहा है, देश की आबादी का यह जो बड़ा भाग कभी-कभार बवण्डर की तरह इधर-उधर अपनी ध्वंसलीला दिखाने लगता है। उसके मूल में समस्या रोटी की है। माना कि मानव के लिए रोटी की समस्या कोई अन्तिम समस्या नहीं है। पर, एक बड़ी समस्या तो है ही, इसे यों ही नकारा नहीं जा सकता। खेद है, इसके समाधान की बात, अनेक बार बात ही हो कर रह गयी है। उसका कार्यरूप कहीं-कुछ भी नहीं दिखाई देता। इस बात को सभी जानते हैं कि जीवन की पहली समस्या खाद्य-समस्या है। और इस देश में, जिसे हम मानव-संस्कृति का अग्रदूत भारतवर्ष कहते हैं, उसकी तो फिलहाल यही एक समस्या विकराल रूप धारण किये हुए हैं। परन्तु इसके विकराल रूप धारण करने के पीछे कुछ कारण हैं, जिन पर न अतीत में समय पर ध्यान दिया गया, और न अब ही गंभीरता से संतोषजनक रूप से ध्यान दिया जा रहा है। अतः वे प्रमुख कारण क्या हैं, संक्षेप में उन पर यहाँ कुछ विचार करना आवश्यक है। पहली बात तो यह है कि इस देश की जनसंख्या पौराणिक रक्तबीज असुर की तरह बढ़ती जा रही है। भोगलोलप प्रवृत्तियाँ दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। जमीन जितनी है, उतनी ही है। और उसकी उपज को खाने वालों की एक भीषण बाढ़ ही आ गयी है। परन्तु ऐसा भी क्यों है ? यह भी एक प्रश्न है ? प्रश्न साधारण नहीं, विकट प्रश्न है ? कुछ भी हो, अगर प्रश्न है, तो उसका कोई-न-कोई उत्तर भी तो होता है। क्योंकि कालक्रम से मनुष्य की चेतना का एक ओर ह्रास हुआ है, तो दूसरी ओर विकास भी कुछ कम नहीं हुआ है। विकास इस अर्थ में कि जीवन-धारण-सम्बन्धी माध्यमों के सम्बन्ध में उसकी दृष्टि काफी-कुछ साफ हुई है। और ह्रास इस अर्थ में कि वह अपनी मूल प्रकृति से कट गया है। ऐसा भी एक समय रहा है, जब कि मनुष्य ने अपना वन्य जीवन पशु की तरह बिताया है। और, इतिहास हमें उस समय के बारे में भी साक्षी देता है, जब कि वह देवता बना है। परन्तु, देवता बनने वाले बहुत थोड़े अंगुलियों पर गिने जाने वाले महापुरुष ही हुए हैं। सर्वसाधारण मनुष्य तो पशु एवं देवता के बीच अटका हुआ है। जिसे आप आम आदमी कहते हैं, वह तो दोनों के बीच की कड़ी है, और यह अपने में एक बड़ी अच्छी बात है, साथ ही सुखकर भी। धरती पर यही बीच का आदमी चाहिए। परन्तु, समस्या यह है कि यह अपनी केन्द्रीय स्थिति को सही रूप में समझ नहीं पा रहा है। वह पशु से अधिक देवत्व का अंश लिए हुए है, किन्तु उस ओर उसकी दृष्टि पहुँच नहीं रही है। इसका निदान काफी गंभीरता से खोजा जाना चाहिए। वर्ना इस देश की गौरवमयी संस्कृति विनाश की ओर लुढ़कती जा रही है, उसे रोका नहीं जा सकेगा। एक जटिल राजनैतिक समस्या है इस देश की। कभी अतीत में राजनीति प्रजा के कल्याण के लिए होती थी। प्रजा-मंगल के लिए समर्पित प्रबुद्ध मनीषी राजनेता हुआ करते थे। उन्हीं के हाथों में देश के संचालन का भार होता था। परन्तु, दुर्भाग्यवश आज वह स्थिति नहीं है। राजनीति का तंत्र-चक्र व्यवस्थित नहीं है। वह एक संहारक व्यूह बन गया है, जिनमें लाखों-लाख, करोड़ों-करोड़ अभिमन्यु मर-कट रहे हैं। अधिकांश राजनेता येनकेन-प्रकारेण अपनी क्षुद्र स्वार्थसिद्धि में लिप्त हैं। प्रजा की सेवा के नाम पर सैंकड़ो दल खड़े हो गए हैं। और, वे लोकतंत्र एवं लोक-मंगल के पवित्र नाम पर जनता को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। अतः इस देश की प्रमुख प्राथमिक समस्या--खाद्य समस्या का समाधान हो, तो कैसे हो ? पुरातन काल में, जब कि भारत की धरती पर जन-संख्या भी कम थी, लोग बड़े मेहनती थे। प्रथम कठोर श्रम और उसके बाद आनन्दोपभोग, इस सिद्धान्त में लोगों का आपाद-मस्तक अटल विश्वास था। देह को मर्यादाहीन सजाने-संवारने के प्रति लोग प्रायः उदासीन थे और सहजता के साथ सीधा-सादा जीवन-यापन करने के अभ्यासी थे। पर, अब यह बात एक मिथ बन गई है । और, लोग भौंचक्के हो कर इस पूर्व जीवन की गाथाओं को ऐसे सुनते हैं, जैसे कि कोई परी-कथा कही जा रही हो। खाद्य समस्या समाधान की खोज में २०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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