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________________ रानियाँ तथा साधारण जन की ओर से यथाप्रसंग चंवर ढलते रहे हैं। कितना बड़ा ऐश्वर्यं । छत्र भी एक नहीं, एक के ऊपर एक करके तीन हैं । ताप निवारण के लिए एक ही छत्र पर्याप्त है, फिर तीन छत्र क्यों ? यहाँ ताप-निवारण का कोई हेतु नहीं है, वे तो प्रतीकात्मक हैं। आचार्य सिद्धसेन के शब्दों में तीन छत्र यह सूचित करते हैं कि भगवान् तीन लोक के स्वामी हैं । हाँ तो, उनके सिर पर तीन छत्र हैं, देव-दुदुंभियों का निर्घोष हो रहा है, दिन-रात हजारों-हजार पताकाएँ लहरा रही हैं । और समवसरण में बैठे हैं, तब भी देव पुष्पों की वर्षा करते हैं। जो भी देव आता है फूल बरसाता आता है और यह फूलों का कितना ढेर, घुटनों घुटनों तक । मैंने एक दिन कहा था कि ऐश्वर्य के, बाह्य परिग्रह के शिखर पर बैठकर तीर्थंकर महावीर ने उपदेश किसका दिया ? अपरिग्रह का । कमाल है, आश्चर्य है, जादू है कि कितनी ऊंचाई पर है वह जीवन । बाहर में इतना बड़ा भोग होते हुए भी अंदर में कुछ भी नहीं । बाहर में कुछ भी रहा हो, अंदर में पूर्ण रूप से अपरिग्रही । अभिप्राय यह है कि बाहर में ऐश्वर्य में रहो, फिर भी अपरिग्रही बने रहो । जीवन का आदर्श भीख माँगना नहीं है । जीवन का अर्थ है -- सब कुछ प्राप्त करके भी अंदर में कमल-पत्र की तरह पूर्णतः निर्लिप्त रहो । अनंत जलराशि से भरे-पूरे सागर में गोता लगाकर भी सूखे निकल आओ। यह जीवन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है । दरिद्रता तो दरिद्रता है, वह बाहर की हो या अन्दर की । दरिद्रता से बढ़कर कोई पाप नहीं है -- "न दारिद्र्यात् पातकं महत् ।" सबसे भयंकर दरिद्रता है - 'आध्यात्मिक दरिद्रता ।' आध्यात्मिक दरिद्रता का अर्थ है -- हमारा मन सद्गुणों से खाली पड़ा है । चित्त में, मन में न अहिंसा की भावना उद्बुद्ध होती है, न दया की, न करुणा की भावज्योति जगती है, किसी भी दुःखी - पीड़ित व्यक्ति को देख कर । जरा अन्त दय से सोचें कि किसी गरीब, असहाय एवं दुःखी व्यक्ति के प्रति कभी कुछ अर्पण करने की भावना आपके हृदय में जगती है, या इधर-उधर से सब कुछ समेटने में ही लगे रहते हैं । यदि सिर्फ समेटते ही रहते हैं, तो यह मन की भावना की दरिद्रता है । और, यह दरिद्रता बाहर के वैभव की दरिद्रता से भी कहीं अधिक भीषण है। ऐसे मन के दरिद्र लोग न परिवार के लिए समय पर कुछ कर सकेंगे, न समाज, न संघ और न राष्ट्रहित के लिए ही कुछ कर पाएँगे। मैंने तो यहाँ तक देखा है, कि वे और तो क्या अपने तन के लिए भी कुछ नहीं कर पाते हैं। आस-पास के दूसरे लोग कहते हैं कि इसके पास काफी वैभव है, लेकिन उनके शरीर की हालत देखो तो ऐसी है कि मानो ये कई जन्मों के दरिद्र हों । जिनके सम्बन्ध में कहा गया है--' पुनर् दरिद्रः पुनरेव पापी' अर्थात् पापी दरिद्र होता है और यह मन का दरिद्र फिर पापी होता है । यह परंपरा अनेक जन्मों तक चलती रहती है, जब तक अन्तर्-ज्योति जागृत नहीं होती। इस प्रकार मन की दरिद्रता दूर होनी चाहिए। वस्तुतः दरिद्रता एक अपराध है, गुनाह है, पाप है -- भले ही वह तन की दरिद्रता हो, मन की दरिद्रता हो, बुद्धि की दरिद्रता हो या धन की दरिद्रता हो । क्योंकि पूर्व पाप के उदय से ही व्यक्ति दरिद्र होता है । और, दरिद्रता के कारण न तो वह स्वयं अपने जीवन का आनंद ले सकता है और न वह परिवार, समाज एवं राष्ट्र को ही यथोचित आनंद दे सकता है । इस दृष्टि से हम विचार करेंगे कि आज का यह महापर्व ज्योति पर्व है । अनंत ज्योतिर्मय ज्ञान - लक्ष्मी की उपासना का पर्व है । दीपावली पर्व एक वर्ष के पश्चात् प्रकाश का संदेश ले कर आता है । यह ज्योति पर्व अंदर और बाहर की दरिद्रता को तोड़ने के लिए है । महाप्रभु महावीर और उनके महान् शिष्य गुरु गौतम का पावन स्मरण ही -- जिनके जीवन की स्मृतियाँ इस पर्व के साथ संबद्ध है, आनंद का स्रोत है। उनका स्मरण जीवन में परम प्रसन्नता की गंगा बहा देता है । और यह स्मरण हमारे इस जीवन की ही नहीं, जन्म-जन्मांतरों की दरिद्रताओं को -- जिनका वर्णन मैंने किया है, समाप्त कर सकता है। उन महाप्रभु के चरणों में हम भावना रखते हैं- "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥” धरती के सभी प्राणी सुखी हों, सभी प्राणी तन और मन के रोग से मुक्त हों, सब भद्र अर्थात् मंगलकल्याण के दर्शन करें, किसी को भी कोई दुःख और पीड़ी न हो । सबकी आँखों में आनंद की ज्योति प्रज्वलित हो। इस संसार का कोई प्राणी न मन से पीड़ित हो, न आध्यात्मिक अभाव से पीड़ित हो, और न भौतिक अभाव ज्योति पर्व Jain Education International For Private Personal Use Only १८३ www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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