SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन-सूत्र के २९वें अध्ययन का वाचन चल रहा है। स्वाध्याय की चर्चा चल रही है। स्वाध्याय के उत्तरोत्तर विकसित होते पाँच अंग हैं--वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा। एक के बाद एक रहस्य खुलता जा रहा है, स्पष्ट होता जा रहा है। किसी भी तरह की उलझन नहीं रह जाती। एक के बाद एक कड़ी स्वतः सुलझती जा रही है। इस तरह वपन किया गया बीज क्रमशः अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हो रहा है तथा फूल फल का रूप ले रहा है और फल रस से सराबोर हो रहा है। स्वाध्याय का, चिन्तन का भी यही क्रमिक रूप बताया गया है। स्वाध्याय का कल्पवृक्ष सर्वप्रथम वाचना से अंकुरित होता है। पच्छना से पल्लवित होता है। परिवर्तना से पुष्पित होता है और अनुप्रेक्षा से फलित होता है। परन्तु, उस फल का जो अंतिम परिणाम है रस से परिपूर्ण होना, वह धर्मकथा में होता है। श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं कि तत्त्वज्ञ गुरु से स्वयं के स्वरूप को सुना-समझा आपने, परन्तु सुनने मात्र से ही उसका यथार्थ परिज्ञान हो जाता है, ऐसा नहीं है। सुनने के पश्चात् उसे अपने चिन्तन की कसौटी पर कसें, उसके संबंध में कूछ तर्क उठते हों तो पूछे, उनका समाधान करें और उस पर गहराई से सोचें-विचारें। चिन्तन की गहराई में गोता लगाने पर ही आपको सत्य के स्वरूप का स्पष्ट बोध होगा। भगवान् महावीर कहते हैं कि यदि सत्य का साक्षात्कार हो गया है, तो फिर आप मौन धारण करके चुपचाप न बैठे रहें। सत्य को समझने के बाद मूक बनकर रहना गलत है। अनुप्रेक्षा से, गहन चिन्तन से आपने जो जाना है, उसकी कथा करें। कथा का अर्थ है, उसका कथन करें, विवेचन करें। स्वयं ने तो समझ लिया, अब दूसरों को भी समझायें। इसलिए अनुप्रेक्षा के बाद धर्मकथा को रखा है। उसका अभिप्राय है, आप कथा तो करें, अवश्य करें। परन्तु, वह जीवन का उच्चतम विकास करने वाली धर्म-कथा हो, संसार-कथा नहीं। अभी चर्चा चल रही थी धर्म और दर्शन की। प्रश्न था कि धर्म और दर्शन क्या है ? धर्म और दर्शन क्या सर्वथा अलग-अलग दो तत्त्व हैं ? सही स्थिति यह है कि दर्शन धर्म से विपरीत नहीं है। जीवन के हर क्षेत्र में दर्शन अपेक्षित है। दर्शन का अर्थ है--दष्टि। वाचना, पृच्छना एवं अनुप्रेक्षा से जिस धर्म-तत्त्व का बोध हआ, जिसका दूसरों के सामने कथन कर रहे हैं वह धर्म-कथा है और उसके पीछे जो यथार्थ दष्टि है, जो निरीक्षण-परीक्षण है, वह दर्शन है। वस्तु के परिज्ञान स्वरूप का निरीक्षण-परीक्षण करने की, उसे यथार्थरूप से जानने-समझने की जो दृष्टि है, वही तो दर्शन है। दर्शन और है क्या? वस्तु के यथार्थ स्वरूप को देखना-जानना ही दर्शन है। यह सत्य है कि कुछ चीजें परोक्ष में हैं। हम उन्हें स्पष्ट रूप से देख नहीं सकते, जैसे, स्वर्ग-नरक आदि। हम अनंत काल से अनेक गतियों में, अनेक योनियों में जन्म लेते आ रहे हैं। हम अपने पूर्वभवों में कहाँ-कहाँ थे? अनंत जन्म पहले किस स्थिति में थे? चिन्तन करने पर भी वह परोक्ष प्रत्यक्ष नहीं हो रहा है। जीवन की धारा कब से प्रवहमान हुई ? कर्म कब से लगे? क्यों लगे? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका किनारा सामने दिखाई नहीं देता। परंतु चिन्तन से इतनी अनुभूति तो होती है कि जीवन-प्रवाह सतत रूप से बहता चला आ रहा है। गंगा की स्वच्छ धारा कल-कल नाद करती हुई बह रही है। गंगा इतनी ही नहीं है, जितनी हमें दिखाई दे रही है। जिस स्थान पर हम गंगा को देख रहे हैं, उसके पूर्व के स्थानों पर भी बह रही है और आगे के स्थानों में भी बहती जा रही है। भले ही उसका उद्गम-स्थल दिखाई दे या न दे वह है अवश्य। गंगा का उद्गम कहाँ हुआ, यह विचारणीय तो है और इस पर विचार करना भी चाहिए, परन्तु जब आप गंगा में स्नान कर रहे हैं, उस समय यह मगजपच्ची करने की आवश्यकता नहीं है। आपको यह आग्रह नहीं होना चाहिए कि मुझे जब यह ज्ञात हो जाए कि गंगा कहाँ से निकल कर आई है, तब ही मैं उसमें गोता लगाऊंगा। परन्तु स्नान करने के लिए इतना दर्शन अपेक्षित है कि जहाँ से मैं नदी उतर रहा हूँ, वहाँ दलदल तो नहीं है, पानी ज्यादा गहरा तो नहीं है, वहाँ मगरमच्छ आदि घातक जलजन्तु तो नहीं हैं। नदी में उतरने के पूर्व यह ज्ञान तो होना ही चाहिए कि जहाँ मैं स्नान करना चाहता हूँ, वह घाट है या कुघाट है। वह अंदर में उतरने योग्य स्थान है या नहीं। भगवान महावीर कहते है कि इतना दर्शन जीवन में भी अपेक्षित है। दर्शन के बिना अथवा दृष्टि के अभाव म व्यक्ति सम्यक् रूप से गति नहीं कर सकेगा। धर्म को जीवन में उतारने के लिए, उसे आचरण का रूप देने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का परिज्ञान होना ही चाहिए। अहिंसा, क्षमा, दया, करुणा, सत्य आदि धर्म के अंग हैं। उदयति दिशि यस्याम् १७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy