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________________ सुल्ताना घोड़े से उतरा। चकित और विस्मित ! बाबा को प्रणाम किया और बोला--"यह क्या है बाबा! मैंने तो सिर्फ पाँच हजार रुपये की ही मांग की थी। और, आपने सड़क पर सारी संपत्ति का ढेर ही लगा दिया।" बाबा मस्कराय और प्रेम से छलकती गंभीर वाणी में बोले--"आ गये बच्चा! बहत अच्छा किया, समय पर आ गए। मुझे देर हो रही थी। भीख चाहिए न? कोई बात नहीं, तू भी भिखारी और मैं भी भिखारी। पर, मैं बड़ा भिखारी हूँ, क्योंकि मुझे विशाल समाज के लिए बहुत-कुछ करना है। और तू छोटा भिखारी है, क्योंकि तुझे केवल अपनी भूख बुझाने के लिए ही कुछ चाहिए। बच्चा! तुझे जितने भी धन की जरूरत हो, निःसंकोच ले जा। मेरा क्या है ! मैं और भीख मांग लूंगा, और वह मुझे मिलेगी ही। पर, हाँ एक बात ध्यान में रखना, मेरे बच्चे! साधु का यह धन भिक्षा का पवित्र धन है, समाज-सेवा के लिए। अतएव इसका अच्छा उपयोग करना, गलत नहीं।" यह कहा, और बाबाजी उठकर चलने लगे। सुल्ताना हतप्रभ ! सिद्ध संत की निर्भीक, निलिप्त, साथ ही प्रेमल वाणी एवं प्रखर तेज ने सुल्ताना के मन-मस्तिष्क को झक-झोर दिया। दुर्दान्त डाकू सहसा द्रवित हो उठा। वह दौड़कर चरणों में झुका, दोनों हाथों से चरण छ्ये, क्षमा मांगी और बाबाजी को अपनी ओर से पाँच हजार की दक्षिणा दे कर विदा ली। है न, अपने में अद्भुत घटना! प्रेम का विलक्षण चमत्कार! निश्छल प्रेम की यह वह अद्भुत आदर्श घटना है, जो हर साधक के लिए पठनीय तो है ही, साथ ही सही तैयारी हो तो समय पर समाचरणीय भी है। आर्हत श्रमण-परंपरा का पर्युषण-पर्व इसी भाव-धारा का पर्व है। वह प्रेम एवं सद्-भावना का उमड़ता क्षीरसागर है, अमृत का अनन्त निर्झर है। पर्युषण पर्व के साधकों की जीवन घटनाएँ भी महान् है। इतिहास साक्षी है, उन चमत्कारी घटनाओं का । सिन्धु सौवीर के महान् सम्राट् उदयन ने युद्ध के द्वारा जीता हुआ अवन्ती का राज्य पर्युषण-पर्व की मंगल-वेला में अपने विरोधी राजा चण्डप्रद्योत को सहर्ष लौटा दिया था। आज भी यह पुण्य गाथा, पर्युषण-पर्व के विश्व-मंगल दिनों में गाई जाती है। यह वह त्याग है, जो प्रेम के छलकते अमृतसागर में से सहज ही समुद्भूत होता है। अनेक यशस्वी गाथाओं को साथ लिए पर्युषण-पर्व, इस वर्ष भी जीवन के द्वार पर आ रहा है। स्वागत की तैयारियाँ प्रायः हर जगह पूरे जोर-शोर से हो रही है। तैयारी के लिए वर्षावास में स्थित साध-साध्वियों के पुकारते-पुकारते कण्ठ सूखे जा रहे हैं। अनेक तपस्वी तप के अग्नि-आसन पर कुछ बैठ गए हैं और कुछ बैठने वाले हैं। परन्तु, पता है, पर्युषण किस आदर्श का पर्व है। यह पर्व है, निर्दोष निर्मल प्रेम का। बिना किसी पूर्व शर्त के विराट् जन-जीवन के साथ आत्मीयता का, अपनेपन का। सस्नेह सद्भाव एवं तज्जन्य पारस्परिक सहयोग ही पर्यषण की वास्तविक उपासना है। यदि यह नहीं है, तो फिर कुछ भी नहीं है। तब तो रूढ़ि के नाम पर निष्प्राण पर्युषण का खाली शव ढोना है। प्रेम पर्युषण का प्राण है। मैत्री, करुणा, क्षमा निर्वैरता आदि इसी के विभिन्न रूप हैं, नामान्तर है। मैं देखना चाहूँगा, पयुषण-पर्व के आराधक इस कसौटी पर कितने खरे उतरते हैं। अब तक के देखे गए पर्युषणों में तो कोई खास बात देखी नहीं गई। 'मत्ती में सव्वभुएस' के केवल सामूहिक नारे ही लगते रहे हैं, और कुछ नहीं। मैत्री के नाम पर बाहर में बहुत-कुछ, अन्दर में कुछ नहीं। वही परस्पर घृणा है, विद्वेष है, कलह है, निन्दा है, दुरालोचना है। क्या नहीं है, जिसे सभ्य समाज में अभद्रता कहते हैं ? और तो और, धार्मिक परम्पराओं के उन्माद भी कहाँ कम हुए हैं। आज के धर्म, इन्हें धर्म कहना भी पाप है, पंथ कहिए। अर्थहीन घुणित वितण्डाओं में इतनी मर्यादाहीन उग्रता से संघर्षरत हैं कि उसे देखकर संसारी कही जाने वाली वितण्डाओं को भी लज्जा आने लगती है। आये दिन ये ही तमाशे दुहराये जाते हैं। और, हम इन्हें देखकर भी धर्म के पवित्र नाम पर अनदेखे कर जाते हैं। अनदेखे ही नहीं, हम में से अनेक उन्हें बढ़ावा भी देते हैं। ये सब बातें स्पष्ट ही सूचित करती है कि अभी तक पर्युषण, पर्युषण-पर्व के रूप में नहीं मनाये गए हैं, केवल दिखावे के रूप में अन्य सामाजिक रीति-रिवाजों की तरह ही, यह धार्मिक-रस्म भी पूरी होती रही है। ૧૬૮ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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