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________________ अब क्या देर थी। स्थान-स्थान पर चट्रियाँ, (विश्राम स्थल) अन्न-क्षेत्र, एवं चिकित्सालय खुलने लगे। और यह सभी सुविधाएँ सर्वथा निःशुल्क । साधुओं से लेकर साधारण जरूरतमन्द गृहस्थ यात्रियों तक के लिए आवश्यक सुविधाओं की एक विशाल शृंखला तैयार हो गई। न यहाँ कोई संप्रदाय का भेद है, न जाति, कुल और प्रान्त आदि का। यहाँ यात्री केवल यात्री है, और कुछ नहीं। यह सेवा की गंगा अब भी प्रवहमान है। विस्तार पाया है इस गंगा ने। शुभ संकल्पों से प्रवाहित होने वाली कर्म-गंगाएँ कहाँ क्षीण होती हैं ! अपनी प्रारंभिक स्थिति में ही बाबाजी की सेवा-योजनाओं ने जन-मानस को चमत्कृत कर दिया था। इतनी सुन्दर व्यवस्था थी कि बड़े-से-बड़ा व्यक्ति भी देख कर मुग्ध हो जाता था। तत्कालीन गवर्नर जनरल ने भी जब यह देखा तो आश्चर्य की मुद्रा में कहा था--मैंने दुनिया भर में सबसे विचित्र होटल यहीं देखे हैंजहाँ दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में स्थान-स्थान पर हजारों लोगों को मुफ्त भोजन मिलता है। उसका कोई हिसाब-किताब भी नहीं रखा जाता है। कैसा आश्चर्य है यह। और, बाबाजी थे कि सब-कुछ करके भी निर्लिप्त-सब कुछ पाकर भी मुक्त! इन्हीं सुगृहीत नाम बाबाजी के जीवन की, उन्हीं दिनों से सम्बन्धित एक घटना है। घटना वैष्णव-परंपरा के संत की है। किन्तु, घटना से प्रतिफलित होने वाला जन-मंगल सत्य, किसी संप्रदाय विशेष का नहीं होता, सबका होता है। सत्य बिना किसी अन्य छाप के चलने वाली वह मुद्रा है, जिसके लिए समग्र विश्व का बाजार अनादि-अनन्त काल से खुला है और अनन्त काल तक खुला रहेगा। सन् १९३८ की प्रातःकाल की मंगल-वेला है। समग्र आश्रम सन्ध्या-वन्दन की पुनीत ध्वनि से गूंज रहा है। इसी बीच पत्र-वाहक द्वारा दिए गए एक हस्त पत्र से सारे आश्रमवासी सन्त और भक्त सहसा भयाक्रान्त हो उठे। पर, स्वामीजी के दीप्तिमान मुख-मण्डल पर वही पहले-की-सी चिर-परिचित मुस्कान खेलती रही। वही शान्त, स्थिर, निर्विकार प्रसन्न मुद्रा। तनिक भी परिवर्तन नहीं। जैसे नया-जैसा कुछ हुआ ही न हो। बात यह थी कि यह पत्र उस समय के दुर्दान्त डाक सुल्ताना का था, जिससे तत्कालीन अंग्रेजी शासन की कुशल एवं सबल रक्षा-शक्ति भी पंग हो रही थी। पत्र में लिखा था, अमुक निश्चित तिथि पर पाँच हजार रुपये, जो उन दिनों बहुत होते थे, अमुक निर्धारित स्थान पर पहुंचा दें। साथ ही यह भी चेतावनी दी गई थी कि उक्त आदेश के पालन में जरा भी देर या इधर-उधर गड़बड़ की गई, तो उसके भयंकर परिणाम आप सबको भोगने होंगे। तुम जानते हो, मैं कौन हूँ, और मैं क्या कर सकता हूँ? में सुल्ताना हूँ, ध्यान में रखिए। भयाक्रान्त शिष्यों ने बाबाजी से निवेदन किया--"गुरुदेव, इस भयंकर क्रुर डाक के पत्र की उपेक्षा करना ठीक नहीं है। डाक क्या है, राक्षस है, राक्षस। हमें जल्दी ही समय से पहले कुछ करना चाहिए। परिस्थिति साधारण नहीं है। इस तरह चुप बैठे रहे, तो कैसे उस दुष्ट से त्राण होगा?" स्वामीजी निर्लिप्त भाव से हंसते रहे। उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में शिष्यों से कहा--"आप सब घोषित तिथि के आने के पूर्व ही सुरक्षित स्थान पर चले जाएँ और आश्रम की सारी संपत्ति सड़क के किनारे खुले में ढेर करके रख दें। मैं अकेला उसके पास रहँगा। देखंगा, सुल्ताना क्या है और उसमें कितना दम है?" शिष्य सब चकित रह गए। किन्तु तेजस्वी सिद्ध संत के सामने बोलते भी क्या ? गुरु के आदेशानुसार सड़क पर आश्रम की संपत्ति के ढेर लगा दिए गए। संपत्ति के नाम पर एक कौड़ी भी आश्रम में न रखी। आश्रम बिल्कुल खाली कर दिया गया। और, बाबाजी संपत्ति के ढेर के पास पास बैठ गए। अपने पूर्व घोषित समय पर सुल्ताना सदल-बल आया। उसने देखा कि आश्रम के बाहर सड़क पर संपत्ति का ढेर लगा है। और, पास ही बाबाजी निर्विकार शान्त मुद्रा में अकेले बैठे हैं। सुल्ताना के लिए यह अलौकिक अद्भुत दृश्य था। जिसके नाममात्र से भय का भूकंप आ जाता था जनता में, उसके सामने सारी संपत्ति सड़क के किनारे रख कर निर्विकार बैठा है एक संत! प्रेम का पुण्य पर्व १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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