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________________ मानव हृदय एक विराट् अमृत-कुण्ड है । उक्त कुण्ड में अमृत है - 'प्रेम' । यह प्रेमतत्त्व ही है, जो मानवता का विस्तार करता है। मानव के क्षुद्र अहं ( मैं ) को और मम (मेरे) को दूर-दूर तक हम और हमारे जैसे विराट् चिन्तन की अनेक धाराओं में प्रवाहित करनेवाला यह निर्मल प्रेम-तत्त्व ही है । यह प्रेम ही है, जो माता - पिता के रूप में, पति-पत्नी के रूप में, पुत्र-पुत्री के रूप में और भाई-बहन के रूप में प्रसार पाता है, व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़कर परिवार बनाता है, परिवारों को परिवारों से जोड़कर समाज का निर्माण करता है। प्रेम न होता तो मानव जंगल में अकेले भटकते प्रेत की तरह होता । प्रेत मृत्यु का प्रतीक है । जीवन से सर्वथा दूर ! मानव हृदय का यह प्रेम छोटे क्षुद्र हृदयवालों की बात है परिवार है । कोई पराया नहीं है । । था, जिसकी कभी यह घोषणा थी, कि - "यह अपना और वह पराया, यह जो उदार हृदय हैं, उनके लिए तो धरती पर बसा समग्र विश्व एक सब अपने हैं, सगे सम्बन्धी हैं ।" "अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥" एक और वैदिक ऋषि के उदात्त मानव हृदय ने कहा था कभी -- " यह विश्व एक घोंसला है । हम सब घोंसले में रहनेवाले एक ही जाति के, एक ही परिवार के स्नेहाप्लुत पक्षी हैं। हम सबका सुख एक है। एक कर्त त्व और एक भोक्तृत्व । " "यत्र विश्वं भवत्येकं नीडम्" । भारत के चिर अतीत में एक युग था, जब मानव हृदय के प्रेम का विस्तार केवल मानव तक ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति था । इसीलिए तो प्रेम की तरंग में भारत का एक ऋषि आवाज लगा गया है--"विश्व के सारे-केसारे प्राणी मेरे बन्धु हैं; भाई हैं । और मेरा देश कोई छोटा-सा भूखण्ड नहीं है । मेरा स्वदेश भुवनत्रय है, अर्थात् समग्र विश्व है । विश्व के सभी छोटे-बड़े प्राणी मेरे देश बन्धु हैं । वे मेरे हैं, मैं उनका हूँ--' " बान्धवाः प्राणिनः सर्वे स्वदेशो भवन त्रयम् ।" हम प्रेम में परस्पर इतने रंग गये थे, घुल-मिल गये थे कि हमारी आवाज एक हो गई थी, हमारा मन एक हो गया था, हमारे कदम एक हो गये थे । हम साथ बोलते थे, साथ सोचते थे और साथ ही मिल-जुल कर एक जुट होकर कर्म करते थे । मन, वाणी और कर्म की यात्रा में हम एक साथ चलनेवाले सहयात्री थे। तभी तो शिष्यों के प्रति गुरु का यह दिव्य घोष गुंज रहा था भारत की धरती पर, भारत 'आकाश पर कि- "संगच्छध्वम्, संवदध्वम्, सं वो मनांसि जानताम् ।" किन्तु खेद है, आज वह प्रेम का अमृत-कुण्ड सूख रहा है । दूर के लोगों के दुःखों की, पीड़ाओं की, अभावों की अनुभूति तो कौन करेगा ? आज तो माता-पिता के दुःख की अनुभूति पुत्र-पुत्रियाँ नहीं करते हैं और पुत्रपुत्रियों के दुःख की अनुभूति माता-पिता नहीं करते हैं । भाई-भाई एक दूसरे से कट गये हैं। बहन और भाई एक दूसरे को ठीक तरह से पहचान नहीं पा रहे हैं । सारा प्रेम सिमट कर व्यक्ति के क्षुद्र पिण्ड में कैद हो गया है । यही कारण है, कि मिट्टी के अपने इस जड़ पिण्ड के ही सुख-दुःख आज के मानव की अनुभूति में आते हैं, इसके सिवा और कुछ नहीं देख पाता है वह । Jain Education International पड़ौसी के साथ घर की दीवार से दीवार मिली है एक ओर, किन्तु दूसरी ओर पड़ौसी एक-दूसरे से इतनी दूर हैं कि कुछ पूछो नहीं। जड़ दीवारें तो एक-दूसरे से मिल सकती हैं, किन्तु चेतनाशील हृदय एक-दूसरे से नहीं मिल पा रहे हैं । विश्व रहस्य का सार एक शब्द में For Private Personal Use Only १५३ www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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