SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्णतः निर्लिप्त हैं। क्योंकि न उन्हें किसी भी प्रकार का आग्रह है और न आसक्ति है और न अपने-पराये का कोई पक्ष-भेद है। उनकी दृष्टि अनेकान्त की है और उसमें किसी भी तरह के एकान्त की लिप्तता नहीं है । भगवान् महावीर का यह विराट् एवं महान् संघ उनके द्वारा उपदिष्ट यदि इसी तत्त्वज्ञान की ज्योति में गति करता, यदि वीतराग- वाणी का सम्यक् प्रकार से हृदय को स्पर्श हुआ होता, तो यह खण्ड-खण्ड नहीं होता, टुकड़ों में विभक्त नहीं होता। आज आप सबको यह एक चुनौती है कि तुम सब आवाज तो अनेकान्त की लगा रहे हो, वीतरागता की लगा रहे हो, भगवान् महावीर के सच्चे उपासक होने की लगा रहे हो, पर आपस में तुम मिल नहीं रहे हो, परस्पर टकरा रहे हो तुम दावे के साथ कह रहे हो, जो कुछ में कह रहा हूँ, वही आवाज महावीर की है। मैं ही महावीर का सच्चा प्रतिनिधि हैं। आपका प्रतिपक्षी दूसरा कहता है कि नहीं, मेरी आवाज में ही प्रभु का सत्य है महावीर का सच्चा प्रतिनिधि में ही है। चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर हो, चाहे स्थानकवासी हो या तेरापंथी हो, इन टुकड़ों के अन्दर भी टुकड़े हैं, पंथो में भी पंथ है और सब आवाजें लगाते जा रहे हैं कि महावीर की देशना हमारी आवाज में है । मुझे इतना ही कहना है कि यदि ये आवाजें एक हैं, भगवान् महावीर के तत्व- ज्ञान को अनेकान्त दृष्टि से अभिव्यवत कर रही हैं और प्रभु की वाणी उनके अन्तर हृदय से ध्वनित हो रही है, तो उनमें मेल होना चाहिए । परन्तु, ये तो पृथक्-पृथक् हैं । उनमें अलगाव है, इतना ही नहीं, अपितु परस्पर एक-दूसरी आवाज को काट भी रही हैं। अस्तु मुझे कहना पड़ेगा कि ये आवाजें महाश्रमण भगवान् महावीर की नहीं, अपने - अपने पंथों की हैं। अपने - अपने साम्प्रदायिक दुराग्रहों की हैं। जैसे राजनीति में अपनीअपनी पार्टियों की आवाजें होती हैं-- एक-दूसरे को नीचा दिखाने की तथा छीना-झपटी करके एक-दूसरी पार्टी के सदस्यों को अपने में मिलाने की इन राजनैतिक पार्टियों का हाल आप अभी सन् ८० के चुनावों में देख ही चुके हैं। इन पंथों का भी वही रूप है, इससे भिन्न नहीं । पार्टियों में दल-बदल का जो रूप है, वैसा ही इन पंथों में भी है। हमारे इन तथाकथित पंथो में भी दल-बदल का काम चल रहा है। कुछ सम्प्रदायों में तो यह धंधा काफी जोरों से चल रहा है और वह कुछ नया नहीं, अनेक पीढ़ियों से हैं। राजनीतिज्ञों ने तो दल-बदलने का काम बहुत बाद में शुरू किया है । यहाँ तो एक सम्प्रदाय का आचार्य दूसरी सम्प्रदाय के श्रावक को अपने में लेने के लिए पहले की सम्यक्त्व बदल देता है। वह कहता है- तुम मेरी सम्यक्त्व ले लो। क्योंकि परम सत्य मेरे पास है, महावीर का तत्त्व-ज्ञान मेरे पास है । सम्पन्- दर्शन और सम्यक् चारित्र मेरी सम्प्रदाय से बाहर कहीं अन्यत्र है ही नहीं । 1 वास्तव में सम्यक्त्व लेने-देने की वस्तु है ही नहीं यदि लेना-देना है, तो जरा सोचें, लेनेवाला क्या ले रहा है और देनेवाला क्या दे रहा है ? यदि सम्यक्त्व देनेवाला गुरु सम्यक्त्व के अर्थ को जानता है और लेनेवाले को भी कुछ बोध है, तो उन्हें यह परिज्ञान होना चाहिए कि सम्यक्त्व के पूर्व कोई व्रत नहीं होता । सम्यक् चारित्र ( व्रत ) सम्यक दर्शन के बिना हो नहीं सकता। यदि उसकी पूर्व की सम्पवत्व गलत थी, जिसे बदला रहे हैं, मिध्यात्वी को सम्यक्त्व बना रहे हैं, तो उसके पूर्व के व्रतों को भी बदलना चाहिए । परन्तु ऐसा वे नहीं करते । व्रत-नियम तो उसके वैसे ही रहते हैं, केवल बदलते हैं श्रद्धा को आजकल के ये तथाकथित पंथवादी साधु बहुत चालाक हो गये हैं। इसका परिणाम है कि वे अपने पंथ के सिवा सबको मिथ्या-दृष्टि मानकर चलते हैं । श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी और इन सम्प्रदायों में भी जो टुकड़े हैं, वे भी परस्पर एक-दूसरे को मिथ्या दृष्टि माने हुए हैं। स्थानकवासी स्थानकवासी की ही दूसरी परम्परा को सम्प्रदाय को मिध्यात्वी मानकर चल रहा है। एक गुरु दूसरे गुरु के शिष्यों की सम्यक्त्व बदलवा रहा है। यदि मिथ्या-दृष्टि मानने की भावना नहीं है, तो फिर सम्यक्त्व बदलाने का क्या अर्थ रहा? उनको तो अब यह भी चाहिए कि सम्यक्त्व के साथ उसके व्रतों को भी बदला जाय। नये सिरे से उसका नव-निर्माण हो। व्रत वे ही रहते हैं। उन्हें सही मान लेते हैं, तभी तो उन्हें बदलते नहीं परन्तु महावीर प्रभु का सिद्धान्त यह है-जिसकी सम्यक्त्व (श्रद्धा-निष्ठा) सही नहीं है, उसके व्रतं सम्यक् T) हो नहीं सकते परन्तु सम्प्रदायवाद के रंग में रंगे साध सिद्धान्त की गहराई में नहीं उतरते। उनका उद्देश्य तौ सिर्फ अपने पंथ के मानने वालों की संख्या बढ़ाना है। जैसे आजकल पण्डे पुरोहित यत्र-तत्र अपने यजमान बनाते फिरते हैं, वही हाल है इन साम्प्रदायिक धर्म गुरुओं का । बहुत वर्ष पहले मेरा एक बड़े नगर में चातुर्मास था। वहाँ के भाई बात कर रहे थे यहाँ अमुक महाराज के इतने घर हैं और अमुक महाराज के इतने । पहले अमुक महाराज के घर अधिक थे, परन्तु जब दूसरे महाराज आये तो उन्होंने पहले महाराज के घर तोड़ लिए, इसलिए अब उनके घर अधिक हो गए हैं। क्या यह महावीर सम्यक्त्व पंथों के घेरे में १४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy