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________________ के व्रतों के तो साक्षी रूप में दाता रहे हैं, परन्तु सम्यक्त्व के नहीं । क्योंकि यह तो आत्म-ज्योति है, अन्दर की श्रद्धानिष्ठा एवं अनुभूति है । गुरु के निमित्त से, उपदेश से एवं अन्य किसी निमित्त से वह ज्योति जग तो सकती है, परन्तु जगती है अपने अन्दर से ही । यह अटल सिद्धान्त है कि एक द्रव्य न तो दूसरे द्रव्य को अपने गुण-धर्म दे सकता है और न एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के गुण-धर्म को ले सकता है। यह स्पष्ट है कि सत्य का उपदेष्टा आत्मस्वरूप का उपदेश दे सकता है । अतः सम्यक दर्शन का स्वरूप क्या है? भगवान् महावीर ने इसकी देशना दी, किन्तु किसी भी व्यक्ति को महाप्रभु ने आज की तरह सम्यक्त्व नहीं दी। आज, सम्यक्त्व के देने और लेने की जो परम्पराएँ चल रही हैं, धारणाएँ बन गई है, उनका आगम से कोई सम्बन्ध नहीं है। आगमों में भगवान् महावीर के जीवन-वृत्त हमारे सामने हैं, उनके बाद के महान् आचायों के भी जीवन-वृत्त हमारे समक्ष हैं। उन्होंने व्रत तो दिये, परन्तु सम्यवत्व नहीं दी। सम्यक्त्व तो स्वयं स्फूर्त होती है। उसका परिबोध दिया जाता है और कुछ नहीं । सत्य यह है कि सम्यक्त्व एक दृष्टि है, अन्तरदृष्टि दृष्टि दी नहीं जाती, वह स्वतः खुलती है। उस दृष्टि को जो बन्द है, खोलने में गुरु निमित्त बन सकता है, इससे अधिक कुछ नहीं । परन्तु वह दृष्टि इतनी महत्त्वपूर्ण है कि अध्यात्म - साधना का प्रथम सोपान ही नहीं, धर्म का मूल है - "दंसणमूलो धम्मो ।" धर्मरूपी कल्पवृक्ष का मूल दर्शन है, सम्यक्त्व है। वृक्ष, बाहर में फैलता जा रहा है, उसकी शाखाएँ ऊपर आकाश की ओर विस्तार पा रही हैं, पर यह सब विस्तार एवं फैलाव उसके मूल में से हो रहा है। उसके बाहरी विस्तार का प्राण मूल में है, जड़ में है। वस्तुतः प्राणवत्ता जड़ में है यदि मूल नहीं है, तो वृक्ष पल्लवित पुष्पित होगा कहाँ से ? कहा है--"मूलं नास्ति कुतः शाखा" यदि मूल नहीं है, तो वृक्ष की शाखा प्रशाखाएँ, पत्ते, फूल कहाँ से होंगे? तो सम्यक् दर्शन अध्यात्म-साधना का आत्म-विकास का, धर्म का मूल का मूल है । यदि मूल ही नहीं है, तो चारित्र का संयम का साधना का वृक्ष फूलेगा फलेगा कैसे ? J 1 अतः भगवान् महावीर सर्व प्रथम आत्म-स्वरूप के बोध का उपदेश देते हैं। स्वरूप-बोध के बाद से निश्चय एवं व्यवहार चारित्र का उपदेश देते हैं । वीतराग भाव में आत्म- लीनता, आत्म-स्थिरता निश्चय चारित्र है, जो मोक्ष का मूल अंग है और नियमोपनियम रूप व्यवहार चारित्र है, जो उप-अंग है अतः तीर्थकर व्यवहार में सर्व चारित्र (साधु-धर्म) या देश- चारित्र ( धावक-धर्म) की प्रतिज्ञा कराते हैं। परन्तु प्रतिज्ञा के साथ-साथ यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि यह व्यवहार चारित्र है। वाह्य वस्तुओं को छोड़ना, उनकी मर्यादा करना, अणुव्रत एवं महाव्रतों को स्वीकार करना बाह्यावार है। वस्तुतः त्याग प्रत्यास्थान बाह्य वस्तुओं का नहीं, प्रत्युत उन पर जो आसक्ति है, ममत्व है और उनको प्राप्त करने की इच्छा-लालसा एवं तृष्णा है, उसका परित्याग है और वह अन्दर में ही होता है, बाहर में नहीं । इच्छाओं का निरोध ही चारित्र है । इच्छाओं का विस्तार आस्रव है और उनका निरोध संबर है। इसलिए निश्चय में चारित्र वीतराग भाव है। वीतराग-भाव आत्मा का स्वभाव है। वह दिया-लिया नहीं जा सकता। निश्चय चारित्र है क्या ? " मोहल्लोहविहोणो "मोह और क्षोभ से रहित होना ही निश्चय चारित्र है। देखना यह है कि आत्म-ज्योति के जगने से मोह-क्षोभ अर्थात राग-द्वेष कितना क्षीण हो रहा है, उसका कितना क्षयोपशम हो रहा है। जितने अंश में राग-द्वेष नहीं है, उतने अंग में ही चारित्र है। और जितने अंश में राग-द्वेष है, उसने अंश में चारित्र नहीं है। तात्पर्य यह है कि चारित्र अन्तरंग में मोह-शोभ का क्षय एवं क्षयोपशम है, बाहर के व्यवहार मात्र में नहीं तीर्थकर एवं गुरु जो चारित्र में साक्षीरूप रहते है, ये व्यवहार-वारिण के रहते हैं। वीतराग प्रभु का स्पष्ट कथन है कि में तुम्हारे व्यवहार चारित्र का साक्षी । निश्चय चारित्र की साक्षी तुम्हारी अन्तरात्मा है। महाप्रभु ने कितनी बड़ी बात कही है। मैं जब-जब आगम पढ़ता है, प्रभु की वाणी, जो आगमों के पृष्ठों पर अमुक अंश में आज भी लिपिबद्ध है, जब-जब मेरी आंखों के सामने आती है, तो मेरा मन उत्साहित हो जाता है। अन्तर की भाव-धाराएं प्रवहमान हो जाती है मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है, उन पवित्र श्री चरणों में कितना महान 'अपरिग्रही' जीवन केवल बाह्य वस्तुओं का परिग्रह छोड़ दिया हो, इतना ही नहीं । महाप्रभु का सबसे महान् अपरिग्रह तो यह है कि न उनका कोई पंथ है, न कोई सम्प्रदाय है, और न किसी के साथ किसी प्रकार का लगाव है। वे अन्दर में पूर्णतः निलिप्त रहे हैं। संसारसागर में विचरण कर रहे हैं वे, पर संसार सागर की एक बूंद भी उन्हें स्पर्श नहीं कर पाती । वे संसार सागर से १४६ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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