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मुझे कहाँ जाना है ? लेकिन मुझे रोको मत, मुझे जाने दो, मैं जल्दी में हूँ, तुम्हारी पूछ-ताछ में मुझे व्यर्थ ही देर हो रही है।
सम्राट अशोक की गाथा भारत के इतिहास की स्वर्णिम गाथा है। उसका कलिंग युद्ध, युद्ध-पूर्ववर्ती जीवन तथा राजनीति और युद्धोपरान्त उसकी धर्म सम्बन्धी एबं आमूल परिवर्तित उसकी राजनीति को जब हम देखते हैं, तो बहुत आसानी से हम यह समझ लेते हैं कि राजनीति में धर्मनीति का स्थान कितना महत्त्वपूर्ण होता है। धर्म से अनुप्राणित होने पर अशोक ने जन-सेवा के जो उदात्त कार्य किए हैं, उन्हीं के फलस्वरूप अशोक, महान् अशोक के नाम से इतिहास में याद किया गया है।
धर्म के साथ राजनीति सूनीति है। बहत स्थल दृष्टि से देखने पर जो नीति कूनीति प्रतीत होती है, धर्म के प्रकाश में वह सुनीति बन जाती है। और साधारण तौर पर प्रतिभासित सुनीति भी धर्म-विमुख होने पर दुर्नीति हो जाती है। महाभारत के युद्ध में अर्जुन की अपनी राजनीति है तथा दुर्योधन की अपनी। हमेशा मायाजाल का आश्रय लेनेवाला दुर्योधन युद्ध में कभी-कभी नीति पर चलता मालूम होता है। किन्तु उसकी नीति, नीति नहीं रह पाती। जबकि नीतिज्ञ प्रज्ञापुरुष श्री कृष्ण दुरात्माओं के अन्याय-अत्याचार की समाप्ति के लिए जहाँ जैसा मौका देखते है, वैसा राजनीति का उपयोग करते हैं। कितनी ही बार छल का उपयोग हुआ है, फिर भी उनकी नीति, नीति है, दुर्नीति तथा कुनीति नहीं। उस धर्मक्षेत्र में अन्तःसलिला सरस्वती की तरह सत्य और न्याय का वह हितावह स्रोत्र अगोचर रूप से सर्वत्र सतत प्रवहमान है। न्याय के लिए युद्ध करना, अत्याचार के खिलाफ तलवार उठाना तथा आततायियों के दमन के लिए संघर्ष करना और जीवन के महान् आदर्शों के लिए जूझना धर्म है। उसकी हिंसा में भी लोक-मंगल की कामना है। अतः, वह धर्म है। निःसन्देह, लोक-मंगल-सम्पन्न ऐसी नीति ही सुनीति है।
वैदिक-परम्परा में धर्मगरु राजनीति के क्षेत्र में भी राजा की छाया की तरह बराबर उसके साथ रहे हैं। जैन-परम्परा में यह उतना प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु प्रकाश पुरुष के रूप में वह निश्चित रूप से विद्यमान है। प्रेरणा के उत्स सदा धर्माचार्य ही रहे हैं। उस युग निर्माता ने अपने धर्म सिंहासन से अनेकानेक राजसिंहासनों को धर्माभिमख किया है। राजा चेटक का न्यायहेतु विपथगामी अजातशत्रु कुणिक के साथ युद्ध होता है। भगवान् महावीर की दृष्टि में चेटक का युद्ध धर्मयुद्ध है। क्योंकि वह न्याय और लोक-मंगल से प्रेरित है। अतः युद्ध-काल में भगवान् ने कुणिक की राजधानी चम्पा में रहकर भी उसके अधर्म-युद्ध का विरोध किया।
प्रारम्भ से ही भगवान महावीर की स्वणिम परम्परा के मणिरत्नभूत आचार्य सिद्धसेन दिवाकर तथा आचार्य हेमचन्द्र आदि वे ज्योतिर्मय आचार्य हुए हैं, जिनकी धर्म-प्रेरणा से राजा विक्रम तथा कुमारपाल जैसे सम्राट प्रेरित हए हैं। इतिहास का विद्यार्थी सहज ही जान सकता है कि इन राजाओं का शासन अन्य राजाओं की अपेक्षा कितना श्रेष्ठ रहा है। प्रजाहित के संरक्षण एवं संवर्धन में वे धर्मगुरु और उनके प्रजावत्सल शिष्य नरेन्द्र हजारो वर्षों तक अन्य राजाओं के प्रेरणा-स्रोत रहे हैं।
इसके साथ ही एक बात मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहूँगा। चूंकि हम किसी मृत संसार में नहीं जन्मे हैं। मत को दफनाने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। हमें जीवन के आयामों के प्रति उसकी बनती-बिगड़ती वर्तमान एवं भविष्योन्मुखी परिस्थितियों के प्रति सचेत रहना है। सत्य के आलोक में विवेकमूलक दीर्घ दृष्टि से तथ्यों को निर्भीकता से स्वीकारना है। हमें यह कहना है कि धर्ममूलक राजनीति परमावश्यक है। किन्तु, हमें सावधान रहना है कि कहीं धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता तथा जातीयता का प्रवेश न हो जाए। साम्प्रदायिकता की आग सामान्य आग नहीं होती, वह दावानल है, जिसमें बहुत सारे देश तबाह हो रहे हैं। आज इरान, इराक आदि देश राजनीतिक पतन की एक लंबी नापाक कहानी बन गये हैं। साम्प्रदायिकता तथा जातीयता से अनुप्रेरित राजनीति के धर्मसिद्धान्त अहिंसा तथा जनकल्याण के आदर्श नहीं हो सकते। वस्तुतः वे स्वार्थपूर्ति के साधन हैं। राजनीति की चालबाजी के द्वारा सिंहासन हथियाने में षड़यंत्र मात्र है। ऐसी स्थिति में राजनीति भी असफल रहती है, और धर्मनीति भी। क्योंकि उसमें साम्प्रदायिकता का जहर परिव्याप्त है। धर्मशून्य मत-पंथ और राज्य दोनों ही जन-जीवन के लिए प्राणघातक हलाहल विष हैं।
धर्म और राजनीति का सही निर्माण विवेकशील कुशल मस्तिष्क ही कर सकते हैं। कलाकार ही सौंदर्य को मूर्त रूप दे सकता है। मूर्ति के दायें हाथ की जगह बाँया हाथ जोड़ दें, पैर की जगह हाथ और हाथ की जगह पर जोड़ दें, तो वह कैसी बदसूरत लगेगी? मंजिल को राह और राह को मंजिल नहीं बनाना है। राह, राह रहे और मंजिल, मंजिल । यही समझदारी की बात है।
सागर, नौका और नाविक
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