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प्रश्न :--राजनीति में धर्मनीति का हस्तक्षेप है या नहीं?
उत्तर :--मनुष्य-जीवन एकांगी नहीं है। वह पशु-पक्षी की तरह मात्र नर-मादा नहीं है। उसका अपना एक इतिहास है, अपनी एक संस्कृति है और है गरिमा से भरपूर एक परम्परा। उसके चारों ओर निर्मल चेतना का एक आलोकपूर्ण संसार है, जिसमें वह जीता है। अपनी मनुष्य जाति से ही नहीं, अन्य जीव-जगत से भी अलग होकर जीना उसके लिए असंभव है। समाज से सर्वथा अलग-थलग होकर वह पूर्णतः स्वनिर्भर रह नहीं सकता। उसका जीवन समाजाधारित है। सृष्टि की एक महत्त्वपूर्ण इकाई होने के नाते उस पर अन्य उत्तरदायित्व भी है। उस पर अपने पूर्वजों का ऋण है, जिसे उसे प्रामाणिकता के साथ अदा करना है। साथ ही वह अगली पीढ़ी के लिए ऋणदाता भी है। अस्तु, उसका जीवन व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक है। स्वतन्त्र होते हुए भी परिवार, पड़ोस, समाज, राष्ट्र तथा विश्व से तादात्म्य भाव से जुड़ा है । ऐसा सुसम्बद्ध जीवन एक सुनियोजित जीवन पद्धति से जीया जाए और सभी को उसकी सुख-सुविधा सहज उपलब्ध हो, ऐसी सुनियोजित जीवन पद्धति को ही नीति कहते हैं"नयतीति नीति।" जीवन को जो ले चलती है, वहन करती है, वह नीति है। राजकीय सरणी से जीवन को अनुशासित करने की पद्धति को राजनीति कहते हैं, और जो जीवन को परम आत्मिक ऊंचाई की ओर ले चले, वह धर्मनीति है। अतः केवल राजनीति में ही नहीं, समाजनीति तथा अर्थनीति में भी जीवन के विकासशील आयामों की विविध दिशाओं में भी धर्मनीति की आवश्यकता असंदिग्ध है।
धर्म वस्तुतः, जीवन को ऊंचा उठानेवाले सिद्धान्तों का संघात है। अन्तरात्मा की गहराई से उठी हुई पुकार है, जागरण का सतत आह्वान है--
"उट्टिए णो पमाइए।"
"उत्तिष्ठत जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत!" उठो, जागो, सोये मत रहो। महान् श्रेष्ठ पुरुषों की संगति में रहकर जीवन के ऊंचे-से-ऊंचे शिखरों पर प्रयाण का सम्यक् बोध प्राप्त करो।
धर्म मानव के अन्तरंग की अध्यात्म चेतना है। धार्मिक व्यक्ति अन्तर् में जाग्रत रहकर निरन्तर अन्तरात्मा का सम्मार्जन तथा परिमार्जन करता है। क्रोध, मोह, अहंकार आदि मन के विकारों को क्षीण करता है । दया, प्रेम, क्षमा आदि सद्गुणों का विकास साधता है। उसके बाह्य परिवेश और उसकी दिनचर्या से सम्बद्ध भोजन, भवन, वसन तथा आचार-व्यवहार पर आधारित नियमोपनियम की जो विधि-निषेधमूलक व्यवस्था है, हम उसे ही धर्मनीति कहते हैं। धर्म हमारी प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परम्परा रही है, जो सदा हमारी राजनीति पर छायी रही है, जैसे भूमण्डल पर आकाश । आकाश बरसता है, पृथ्वी पर खुशियाली-हरियाली छा जाती है। प्रारंभ से ही हमारे धर्माचार्य, धर्मगुरु ज्ञान का प्रकाश ले आकाश में चमकते रहे हैं। उनकी विकीर्ण प्रकाश रश्मियों से पृथ्वी का विकास तथा संवर्धन होता रहा है। राजमहलों में पले राज्यश्री के उत्तराधिकारी राजकुमारों का जीवन प्रारंभिक अवस्था में आश्रमों में गुरु के पवित्र सान्निध्य में गुजरता था। वे दिव्य गुरु के चरणों में अन्तेवासी बनकर अध्ययन करते थे। धर्मगुरु के हाथों में केवल धर्म-शास्त्र ही नहीं, शासन-सूत्र भी रहते थे। वे धर्म-शास्त्र के उद्घोष के साथ ही धर्मानुप्राणित राजनीति, समाजनीति और परिवारनीति के जन-कल्याणकारी प्रयोग तथा अन्यान्य विद्याओं का मुक्त हृदय से दान करते थे। इस प्रकार व्यक्ति के हाथों धर्मशास्त्रानुप्राणित राज्य सत्ता होती थी। वस्तुतः धर्म के प्रकाश से प्रकाशित और धर्म की कसौटी पर कसी हुई राजनीति ही प्रजाहितकारी सिद्ध होती है। वह शासन सुशासन होता है। धर्मानुरंजित-आत्मा धर्ममूर्ति राजा युधिष्ठिर के लिए महर्षि व्यास ने ठीक ही कहा है"जहाँ राजा युधिष्ठिर है, वहाँ सुकाल है, समृद्धि है, सुख है। प्रजा खुशहाल है। वहाँ रोग नहीं हो सकता, अकाल नहीं हो सकता। अपराध तथा उपद्रव नहीं हो सकते।"
धर्मानप्राणित राजनीति हमारे उच्चतम नैतिक मूल्यों तथा आदर्शो की दिशा में गतिशील होती है और धर्मविहीन राजनीति मात्र कूटनीति बन जाती है। छल-छद्म का खेल बनकर रह जाती है। वह मनुष्य की पाशविक वत्तियों की निम्नतम क्रीड़ा-भूमि बन जाती है। राजनीति के सम्मुख धर्म के उच्चादर्श रहने से देश नैतिक पतन से बच सकता है, अन्यथा आचारहीनता के जघन्य काले धब्बे से राष्ट्र का पवित्र शरीर श्रीहीन हो जाएगा। धर्मविहीन राजनीति उस पागल व्यक्ति की तरह है, जो बेतहाश भागा जा रहा हो, भागते, भागते उसका दम फूल रहा हो, किन्तु उसे स्वयं अपनी मंजिल का कुछ भी अता-पता न हो। रोककर कोई पूछे तो कहेगा, पता नहीं,
राजनीति पर धर्म का अंकुश
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