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गमन आदि ऐसे कुछ दुर्व्यसन हैं, जो परिवार, समाज और राष्ट्र को बर्बाद करते हैं। महाभारत का भीषण नरसंहार चूत के व्यसन में से उद्भूत हुआ है। लंका की राक्षस जाति का देवोपम ऐश्वर्य परस्त्री के कारण ही मिट्टी में मिला है। द्वारका के यादवों का साम्राज्य मद्यपान ने ही ध्वस्त किया है। राजपूत और मुगलों का गौरवमय इतिहास सुरा और सुन्दरियों के धब्बों से ही कलंकित होकर समाप्त हुआ है। जैन-धर्म राजा और प्रजा दोनों को ही उक्त सब दुर्व्यसनों से मुक्ति का सन्देश देता है, ताकि न्याय-नीति के साथ राजा और प्रजा दोनों ही सुख एवं शान्ति का जीवन यापन कर सके।
जैन-दर्शन मानव प्रजा को स्वच्छ एवं जन-कल्याणकारी शासन देने के पक्ष में है। भोग-विलास में मदहोश और उच्छृखल अत्याचारी शासकों को जैन-धर्म का संदेश है कि यह सिंहासन पुण्य से प्राप्त हुआ है, अतः इसका उपयोग भी पुण्य-कर्म के लिए ही करो। आर्य-कर्म करो, सदाचारी रहो, प्रजा के प्रति सहृदय रहो, अनुकंपा का भाव रखो। यही वह धर्म की ज्योति है, जो तुम्हारी अन्तरात्मा में देवत्व की ज्योति जगा सकता है। अन्यथा नरक की यात्रा तैयार है।
जैन-धर्म राज्यसिंहासन का विरोधी नहीं है। वह विरोधी है, सिंहासनों पर से होनेवाले अन्याय का, अत्याचार का, दुराचार का। वह तो कहता है, न्याय-नीति से चलो, तो राज्य भी करो, और पुण्यार्जन भी। यहाँ भी सुखी रहो, और परलोक में भी सुखी रहो। पर, यह कब? जब दूसरों के सुख का ध्यान रखोगे, तभी सुख पा सकोगे। जो दूसरों को बर्बाद कर अपने जीवन के सुख साम्राज्य का निर्माण करना चाहते हैं, इससे बढ़कर स्वार्थपरता और खुदगर्जी की निकृष्ट दृष्टि और कौन-सी होगी। यह आसुरी दृष्टि है। जो दूसरों का रक्तपान कर अपना जशन मनाती है। जिसको दूसरों के दुःख दर्द का, अभाव का, सुख का या शान्ति का जरा भी कोई ध्यान नहीं है, वह विशाल हृदययुक्त महान् मानव कैसे हो सकता है। इस नर-पशु को किसी भी शासन के पवित्र सिंहासन पर बैठने का क्या अधिकार है। यदि सिंहासन पर बैठनेवाला सदाचारी हो, न्याय-नीतिपरायण हो, तो उस एक व्यक्ति के द्वारा ही लाखों-करोड़ों लोगों का हित हो सकता है। अतः जैन-धर्म की नीति सिंहासन पर बैठने का विरोध नहीं करती है, अपितु सिंहासन पर ठीक तरह बैठने का उचित शिक्षण देती है। यही कारण है कि जैन-परम्परा ने मानव जाति को मगधनरेश श्रेणिक, विदेह गण-राज्य के अध्यक्ष चेटक, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त, गुर्जर नरेश कुमारपाल, महान् सम्राट अमोघवर्ष जैसे इतिहास प्रसिद्ध प्रजापालक, सदाचारी शासक दिए हैं, जिनके जीवन की सुगन्ध आज भी भारतीय इतिहास में महक रही है। विमलशाह, मुंजाल, उदयन दयालशाह, आमूशाह, भामाशाह तथा वस्तुपाल, तेजपाल जैसे अनेक महामंत्री और सेनापति भी जैन-धर्म की देन हैं, जिन्होंने अपने राष्ट्र की सेवा एवं रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया और आक्रमणकारियों को बुरी तरह पराजित कर राष्ट्र के गौरव को चार चाँद लगाए। आज भी इनकी राष्ट्ररक्षा की वीरगाथाएँ भारतीय इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों पर जगमगा रही हैं।
भारतीय राष्ट्र की एकता, समग्रता के हेतु भी जैन-संस्कृति का कम योगदान नहीं है। सर्वप्रथम भरत चक्रवर्ती तदनन्तर शान्ति, कुन्थु एवं अरह आदि अनेक जैनधर्मी चक्रवर्ती नरेशों ने विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों के अनेक परस्पर विरोधी कानूनों, न्याय व्यवस्थाओं से पीड़ित जनता को एक अखण्ड जन-मंगलकारी शासन व्यवस्था देकर कितना महान् लोकहित किया है, इतिहास इसका साक्षी है। क्या यह उपक्रम जन-जीवन से दूर भागने का है ?
__ आदि युग के सर्वप्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने तत्कालीन वनवासी अभावग्रस्त एवं भूख से मुभूर्ष होती प्रजा का जो उद्धार किया है, वह इतना महनीय है कि कोई भी सहृदय उससे हर्ष गद्-गद् हुए विना नहीं रह सकता । भगवान् ऋषभ ने ही नागरिक सभ्यता का सूत्रपात किया, समाज व्यवस्था की स्थापना की, कृषि एवं शिल्प आदि का योग्य शिक्षण देकर औद्योगिक क्रान्ति का क्रान्तिकारी कदम उठाया। पुरुषों की ७२ और स्त्रियों की ६४ कलाओं के सूत्रधार भी भगवान् ऋषभ ही थे। वे मानव सभ्यता के आदिकाल के महान कर्मयोगी थे, जिन्होंने हमारी पौराणिक धारणा के अनुसार ८४ लाख पूर्व की अपनी आयु का ८३ लाख पूर्व जितना दीर्घकाल जनहित में समर्पित किया। शेष एक लाख पूर्व भी जनता के सुप्त आत्मबोध को जगाने में लगाया। आप इस पर से समझ सकते हैं, समाज हित के प्रति जैन-धर्म का क्या आदर्श था?
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सागर, नौका और नाविक
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