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________________ प्रश्न :--अनेक पाश्चात्य लेखकों ने यह हवा फैलाई है कि जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म वर्तमान जीवन संग्राम एवं उसके कर्म संघर्ष से डरकर परलोक की ओर भागने वाले धर्म हैं। इनकी दृष्टि वर्तमान जीवन पर नहीं, मरणोत्तर अगले जीवन पर है। ये वर्तमान को सुन्दर एवं सुखी न बनाकर भविष्य को, वह भी मरणोत्तर भविष्य को सुन्दर एवं सुखी बनाने की कल्पनाओं में उलझे रहते हैं। इस प्रभाव में अनेक भारतीय मनीषी भी आए हुए हैं। पं. जवाहरलाल जैसे राष्ट्रनायक भी इसी चिन्तन जाल में उलझ गए थे। उन्होंने भी लिखा है-- "बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म ने जीवन से दूर रहने पर, जीवन से दूर भागने पर जोर दिया है।" आपका इस सम्बन्ध में क्या विचार है ? क्या यह धारणा उनके अपने इन शब्दों में सही है ? उत्तर :--पाश्चात्य विद्वान् हों या पौर्वात्य हों, भारतीय हों, अधिकतर वर्तमान के कुछ प्रचलित क्रियाकलापों या मान्यताओं को देख-सुनकर ही किसी धर्म-परम्परा की व्यापक जीवन-धारा पर अपने संकीर्ण चिन्तन की मुहर लगा देते हैं। यह दोष उनका नहीं है। कुछ तो धर्मों की अपनी ही वर्तमान-कालिक संकीर्ण मान्यताओं का है और कुछ जल्दी में यों ही ऊपर से थोड़ा-बहुत देखा भाला और शीघ्रता में कुछ-न-कुछ लिख देने का है। किसी भी पूराने या नये विषय पर कुछ लिखने से पूर्व उससे सम्बन्धित व्यापक अध्ययन, मूलगामी चिन्तन-मनन एवं तटस्थ भाव से सत्य के प्रति न्याय दृष्टि आवश्यक है। मुझे लगता है, विद्वान लेखकों ने जैन और बौद्ध धर्मों के अन्तस्तल को गहराई से नहीं छुआ है। केवल सुनी-सुनाई सतही दृष्टि के आधार पर ही कुछ लिख दिया है, जो थोड़े से बुद्धिजीवी वर्ग में प्रचार पा रहा है, या पा गया है। बौद्ध धर्म की चर्चा के लिए अलग से समय अपेक्षित है। अच्छा हो, स्वयं बौद्ध धर्म के अधिकारी भनीषी ही उस पर कुछ प्रकाश डालें। जैन श्रमण होने के नाते मैं यहाँ संक्षेप में जैन-धर्म से सम्बन्धित भ्रान्ति के निराकरण हेतु ही कुछ विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। जैन-धर्म की दृष्टि में जीवन संग्राम नहीं, आपा-धापी कीहमार काट नहीं, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं। जीवन मानवता के विराट् पथ पर होने वाली एक यात्रा है। इसे सुखद एवं सुन्दर बनाने का उपक्रम ही धर्म है। यात्रा ऐसी होनी चाहिए, जो अपने लिए भी सुखद हो, साथ ही दूसरे सहयात्रियों के लिए भी। यात्रा का यह अर्थ नहीं है, कि यात्री परस्पर लड़ते-झगड़ते, मारते-पीटते, गाली-गलोज करते हुए शत्रुओं की तरह यात्रा करें। एक दूसरे को धक्का देते हुए, रूलाते हुए चलना, असभ्य समाज का लक्षण है। सभ्य समाज में ऐसा नहीं होता। सभ्य यात्री परस्पर प्रेम से बतियाते, हंसते मुस्कराते चलते हैं। संकट काल में एक-दूसरे को सहयोग देते हैं, एक-दूसरे के सुख-दुःख में विवेकपूर्वक साझीदार होते हैं। किसी को काँटा लग जाए या कोई ठोकर खा कर गिर जाए, तो साथ का सभ्य साथी यों ही लापरवाही से बीच में छोड़कर आगे नहीं चला जाएगा। वह रुकेगा, और समस्या को हल करने में अपने सहयात्री की सहायता करेगा, अपना पूर्ण सहयोग देगा। साथी को अधमधार में छोड़ देना पाप है। सभ्य यात्री ऐसे पाप से बचता है। जैन-धर्म मानव की उक्त जीवन यात्रा को सुखद, सुन्दर एवं सभ्य बनाने की दिशा में आदि काल से यत्नशील रहा है। काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकार, दुःख, घृणा, द्वेष, कलह, हिंसा, असत्य, स्तेय, कुशील, मर्यादाहीन, परिग्रह, शोषण, अन्याय अत्याचार आदि जीवन की वे विकृतियाँ है, जो मानव को निरन्तर अशान्त किए रहती हैं। जैनधर्म उक्त विकृतियों के विजय का उपदेशक है। उसका कहना है कि ये विकृतियाँ मानव की अन्तरात्मा के अन्दर में रहे हुए शत्रु हैं। इन शत्रुओं के रहते हुए मानव कभी भी वास्तविक सुख, शांति एवं आनन्द नहीं प्राप्त कर सकता। न वह स्वयं आनन्द में पचास-सौ वर्ष की अपनी जीवन यात्रा पूर्ण कर सकता है। और न परिवार, समाज और राष्ट्र आदि के रूप में जो अन्य सहयात्री हैं, उन्हें ही शान्ति से अपने जीवन पथ पर चलने दे सकता है। कोई भी देख सकता है, आज जो व्यक्ति-व्यक्ति में, परिवार-परिवार में, समाज-समाज में, राष्ट्र-राष्ट्र में द्वन्द्व है, विग्रह है, संघर्ष है, अविश्वास है, उसके मूल में कहीं-न-कहीं वे ही विकृतियाँ काम कर रही हैं, जीनको जितने की, समाप्त करने की शिक्षा जैन-धर्म देता रहा है। मानव जाति के सबसे बड़े शत्रु उसमें व्याप्त दुर्व्यसन है। जूआ, चोरी, मांस, मद्य, वेश्या और परस्त्री जीवन से भागना, धर्म नहीं १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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