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________________ प्रश्न :--साधना में, विशेषकर जैन साधना में अपरिग्रह-व्रत को बहत अधिक महत्त्व दिया गया है। परिग्रह को पाप, यहाँ तक कि समस्त अनर्थों का मूल महापाप तक बताया गया है। परन्तु, क्या परिग्रह के बिना जीवन-यात्रा चल सकती है। गृहस्थ की बात छोड़िए, महाव्रती गृहत्यागी भिक्षु तक को अमुक पदार्थ विशेषों की, उपकरणों की और भोजन-योग्य वस्तुओं की अपेक्षा रहती है। अत: अमुक रूप में परिग्रह भी रखना और साथ ही पूर्ण अपरिग्रही होने का दावा करना, इसका क्या अर्थ है ? उत्तर :--महाश्रमण भगवान् महावीर के समक्ष ही परिग्रह और अपरिग्रह के प्रश्न उपस्थित हो गए थे। अतः परिग्रह क्या है ? और अपरिग्रह क्या है ? इसकी व्यापक व्याख्याएँ और विचारणाएँ उस युग में ही शुरू हो गई थीं। स्वयं भगवान् महावीर ने अपने संपर्क में आने वाले साधकों को इस विषयं का काफी स्पष्टीकरण दिया है। भगवान् महावीर अपरिग्रह की बाह्यसीमा को वस्त्रमुक्त नग्नता की भूमिका तक ले गए। एक बार वस्त्र से मुक्त हुए, तो फिर तार मात्र भी उन्होंने पुनः न लिया। परन्तु, समय पर भोजन वे भी लेते रहे, समवसरण में स्वर्ण सिंहासन आदि का, जो भक्त लाकर रख देते थे, उपयोग वे भी करते रहे। बाह्य वस्तुओं को परिग्रह की दृष्टि से देखा जाए, तो भगवान् महावीर भी अमुक अंश में परिग्रही और अमुक अंश में अपरिग्रही प्रतिभासित होते हैं। यही स्थिति धर्मोपकरण रखनेवाले अन्य गणधरों, आचार्यों, भिक्षुओं की है, अतः परिग्रह और अपरिग्रह के स्वरूप को स्पष्टता से समझने के लिए मानव-मन के अन्दर में देखना होगा कि वहाँ क्या है? परिग्रह का सम्बन्ध बाह्य वस्तुओं से उतना नहीं है, जितना कि मानव की संग्रह बुद्धि में है। वस्तु का समय पर उपयोग कर लेना, एक बात है, और आसक्तिमूलक उसका संग्रह कर रखना, भविष्य के चिन्ता-चक्रों में उलझे रहना, दूसरी बात है। जो साधक व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सामाजिक आदि जवाबदारियों से पूर्णतया मुक्त हो गया है, अध्यात्म जागरण एवं नैतिक उत्थान की दिशा में स्व-परकल्याण के हेतु अपना समग्र जीवन समर्पित कर चुका है, उसे किसी भी प्रकार के संग्रह से कुछ लेना-देना नहीं है। वह अतीत से जैसे मुक्त है, वैसे ही भविष्य से भी मुक्त है। आज अपेक्षा है, और उसकी पूर्ति के लिए वस्तु आज है, तो आज ही उसका उपयोग भी है। वह भी अनासक्त मन से। यह केवल अपेक्षा पूर्ति है, वासना पूर्ति नहीं। ऐसे साधक को कल खाना मिलेगा या नहीं, कल वस्त्र प्राप्त होगा या नहीं, इसकी कोई चिन्ता नहीं है। उक्त भविष्य के संकल्प-विकल्पों से वह पूर्णतया मुक्त रहता है। वह केवल वर्तमान में जीता है, केवल वर्तमान को देखता है। कल से उसे कोई मतलब नहीं है। इसी सन्दर्भ में कभी कहा गया था-- "वर्तमानेन कालेन, वर्तयन्ति विचक्षणाः।" "गई वस्तु सोचे नहीं, आगम बांछा नाँहि वर्तमान वर्ते सदा, ते ज्ञानी जग माँहि ॥" उक्त चिन्तन पर से स्पष्ट है कि आसक्तिमूलक संग्रह बुद्धि परिग्रह है, केवल वस्तु नहीं। यह ठीक है कि स्वर्ण, रजत, मणि-मुक्ता तथा अन्य धनधान्य एवं भवन, वसन आदि वस्तु, जो मानवमन में सहसा आसक्ति को जन्म दे देती है, उन्हें भी औपचारिक परिग्रह मानकर सर्वसंग-त्यागी भिक्षु के लिए त्याज्य बताया गया है। दुर्बल मन इन वस्तुओं के मायाजाल में फंस सकता है। परन्तु जीवनोपयोगी या साधनोपयोगी वस्तुओं का अनासक्त भाव से उपयोग भिक्षु के लिए भी विहित है। इसीलिए परिग्रह की व्याख्या करते हुए मूल आगम-साहित्य एवं उत्तरकालीन ग्रन्थ साहित्य में कहा गया है-- "मुच्छा परिग्गहो।"--दशवैकालिक "मूर्छा परिग्रहः।"--तत्त्वार्थ सूत्र परिग्रह की परिभाषा १२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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