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________________ अपनी सीमा में, मर्यादा में हैं, तो बुरे नहीं है। यदि इनसे जीवन का निर्माण हो रहा है, तो वे हितकर ही हैं। क्रोध और अभिमान के साथ लोभ की बात कर लूं। लोभी व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता। परन्तु, भगवान महावीर कहते हैं कि लोभ प्रशस्त भी है। वह एकान्त रूप से अप्रशस्त (बुरा या अशुभ) ही है, ऐसी बात नहीं है। यदि लोभ अर्थात कुछ-न-कुछ बचाने की दृष्टि नहीं है, आय, व्यय एवं संग्रह आदि का विवेक नहीं है, तो बापदादों के संग्रहित धन को उड़ाते देर नहीं लगेगी। परन्तु, इसका यह अर्थ भी नहीं है कि तिजोरी में रखे धन को गिनते रहो। उसे खाने-पीने एवं तन के आराम के लिए भी खर्च न करो और किसी शुभ कार्य में भी न लगाओ, केवल बटोरते ही रहो, तो वह लोभ किस काम का। वह तो पतन का ही कारण है। उससे जीवन का निर्माण संभव नहीं है। हमारे एक महान् आचार्य ने कहा था “यः काकिणीमप्यपथे प्रपन्नां...... काले च कोटिष्वपि मुक्तहस्तः।" एक काँकणी (पुराने युग का बहुत छोटा सिक्का) यदि व्यर्थ में खर्च हो गई है या हो रही है, तो उसके लिए विचार करो, सोचो, परन्तु यदि समय पर सत्कर्म में, जन-सेवा के क्षेत्र में दस-बीस ही नहीं, सौ-दो-सौ ही नहीं, हजारों-लाखों ही नहीं, करोड़ों स्वर्ण मुद्राएं भी खर्च करने का अवसर आए, तो उसके लिए यथास्थिति मुक्त हृदय से तैयार रहो। व्यर्थ में खर्च हो रही एक काँकणी को भी बचाना बुद्धिमानी है। वह लोभ प्रशस्त है। परन्तु, केवल संग्रह ही करता रहे--न अपने लिए उसे काम में लाए और न जन-सेवा के लिए, तो वह लोभ बरा है। इसलिए श्रमण भगवान महावीर ने जोर दे कर कहा कि अति से बचो। अति चाहे क्रोध की हो, मान की हो, लोभ की हो या अन्य किसी की हो, वह बुरी है। यदि कषायें भी अपनी सीमा में हैं, शुभ में हैं, तो वे जीवन को बर्वाद करने वाली नहीं, अपितु बनानेवाली हैं। जीवन की तीन धाराएँ हैं--अशभ, शुभ और शुद्ध । वर्तमान जीवन का अधिक अंश शुभ और अशभ में है। यदि अध्यात्म-ज्ञान के इस अहंभाव के कारण कि मैं तो निरंजन-निर्विकार हूँ, इसलिए मुझे कुछ नहीं करना है। अशुभ ही नहीं, शुभ भी हेय है। मुझे तो एकान्त शुद्ध रहना है। यह शाब्दिक ज्ञान है, यथार्थतः वर्तमान परिणति एवं स्थिति से शून्य है। वर्तमान में आत्मा का परिणमन किन भावों में हो रहा है, इस ओर न देख कर, यथार्थ से आँखें बन्द करके केवल स्वरूप-बोध के अहंभाव में सत्कार्य अर्थात् शुभ प्रवृत्ति का निषेध करना, समयानुसार उसे न करना, उसे बुरा मानना, यह भी एक अति है। और यह अति भी जीवन को गिराने वाली है। अत: वर्तमान में शुद्ध भाव न होते हुए भी उसका नाटक करना, उसकी अति में बहे जाना बुरा है। अतः अति कोई भी क्यों न हो, उससे बचना ही जीवन का निर्माण एवं विकास करना है। पुण्य और पाप की व्याख्या करते हुए भगवान् महावीर ने कहा है--मन्दकषाय पुण्य है, तीव्रकषाय पाप है। क्रोध आदि कषाय की मन्दता पुण्य है और तीव्रता पाप है। मन्द कषाय शुभ है, प्रशस्त है, जीवन को उन्नत बनाती है। जब भी बात करो, प्रशस्त की करो, काम करो तो प्रशस्त करो। निकृष्ट भाषा कभी न बोलो। निकृष्ट का अर्थ है--मैं क्या करूं, मैं तो कुछ कर नहीं सकता, मेरे से कुछ भी होगा नहीं, ऐसी निकृष्ट भाषा से भी बचना चाहिए। सत्कार्य थोड़ा करो या अधिक भावना से करो और अति से बचो। न तो एकदम भगवान् वनने के लिए छलांग लगाओ और न राक्षस बनो। दोनों अतियों के मध्य की स्थिति में रहो। वह है साधक की स्थिति, इन्सान का जीवन । और, यह मध्य स्थिति ही आज के जीवन का निर्माण कर सकती है। क्रोष-शक्ति का नियन्त्रण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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