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अहं (स्वाभिमान) शुन्य व्यक्ति व्यक्तित्वहीन राह का रोड़ा है। वह पत्थर की तरह जड़ है, निष्क्रिय है, क्या कर पायेगा वह चेतनाहीन अपने जीवन का निर्माण । प्राचीन युग की एक कहानी है--
एक युवक, बड़े घर का लड़का था। वह धन-वैभव में, लाड़-प्यार में पला था। फूल की तरह खिलता रहा, महकता रहा। पर बड़ा होने पर यार-दोस्त ऐसे मिले कि वह अवारा हो गया। एक दिन यों ही मटरगस्ती कर रहा था, इधर-उधर घूम रहा था। सामने देखा कि पानी का घड़ा ले कर उधर से एक सुन्दर नवयुवा लड़की आ रही है। युवक ने छेड़ने की बुद्धि से घड़े पर कंकर फेंका। लड़की ने उसे डाँटकर कहा--'यह तुम क्या कर रहे हो?"
"मुझे तुम से प्रेम है !'' लड़के ने हिचकते-घबराते हुए कहा ।
लड़की ने पूछा--प्रेम यानी विवाह करना चाहते हो? परन्तु पहले यह तो बताओ कि तुम वासी खा रहे हो या ताजा? तात्पर्य यह है कि तुम बाप की कमाई पर ही ऐशोआराम कर रहे हो या स्वयं कमाकर खा रहे हो? याद रखो, मैं एक सामान्य घर की लड़की हूँ। विवाह मुझे करना है, परन्तु उसके लिए मेरी एक शर्त है- यदि तुम्हारे पास अपनी ताजा कमाई हो, तो मैं तुम्हारे साथ विवाह कर सकती हूँ, अन्यथा नहीं। बाप की कमाई पर अकड़ने वाले युवक मूर्ख होते हैं।
युवक अवारा भले ही हो गया हो, पर था बहादुर आदमी। वीर व्यक्ति के तेजस्वी मन को ही चोट लगती है। लड़की के चुभते-तीखे शब्दों ने उसके सोये हुए व्यक्तित्व को झकझोर कर जगा दिया। उसने तुरन्त कहा--"देखो, मैं आज ही कमाने जा रहा हूँ। तुम मेरे लौटने तक प्रतीक्षा करना।” युवक ने घर आते ही अपने पिता के सामने व्यापार के लिए बाहर जाने की बात रखी, तो पिता ने कहा--तुम्हें बाहर जाने का क्या काम है। हमारे घर में इतना धन-वैभव है कि तुम ही नहीं, तुम्हारी सात पीढ़ी तक बैठे-बैठे खायें, तब भी वह समाप्त होने वाला नहीं है। प्रायः पिता ऐसा ही बोलते हैं। परन्तु, उसने कुछ नहीं सूना और चल दिया अपने घर से। पिता ने कहा कि जा रहे हो, तो व्यापार के लिए कुछ पूंजी तो लेते जाओ। उसने पिता के इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया। फिर गंभीर, किन्तु विनम्र स्वर में उसने कहा, मैं अपने ही श्रम से श्री का उपार्जन करके घर वापिस लौगा।
वह पिता के घर से बिना कुछ लिए ही अपनी यात्रा पर निकल पड़ा। अनजान रास्ता, अज्ञात जगह, पर मन में भावना जागृत थी धन कमाने की। बस, लग गया अपने काम में। शून्य में से निर्माण करना शुरू किया और जब अपने घर लौटा, तो वह एक श्रेष्ठ श्रीमन्त था। सब ओर उसके जय-जयकार गूंज गये। अहं को लगी चोट काम कर गयी।
याद रखिए, श्रम में से ही श्री पैदा होती है। भले ही वह श्रम शारीरिक हो या दिमागी। भले ही वह श्री भौतिक हो या आध्यात्मिक । बिना श्रम के श्री की प्राप्ति संभव नहीं है। और, यह थम जगता है कभी-कभी अहं पर एक विलक्षण चोट के लगने पर। राजगह के प्रतिष्ठित धनकुबेर 'धन्ना' का जीवन आप लोगों ने अनेक बार सुना है। उसके अन्तर मन में आध्यात्मिक ऋद्धि, आत्म-वैभव पाने की भावना कब जगी, पता है आपको? जब कि उसकी पत्नी सुभद्रा ने उसके स्वाभिमान पर चोट की। जब तक स्वाभिमान पर चोट नहीं पड़ती, तब तक सोया व्यक्तित्व जागृत नहीं होता।
अस्तु, स्वाभिमानी व्यक्ति वह है, जो 'अहं' पर चोट लगते ही जागत हो जाए। जिसका अहं भाव जागृत नहीं होता, एक बार नहीं, बार-बार चोट खाकर भी जो जागता नहीं, वह मर्दा है। और, शव की तरह सड़ता रहता है। मुर्दा (शव) इतना बुरा नहीं है, जितना कि मुर्दा जीवन बुरा है। जीवित-मर्दा स्वयं तो सड़ता ही है, साथ ही वह परिवार, समाज एवं राष्ट्र में जहाँ भी जाता है, सबको सड़ा देता है। कहावत है कि एक सड़ा हुआ पान अपने साथ के अन्य ताजा पानों को भी सड़ा-गला देता है। अतः जीवन में मुर्दापन नहीं, तेज होना चाहिए। अपने व्यक्तित्व का स्वाभिमान होना चाहिए। चाहे क्रोध हो, मान हो, लोभ हो, कुछ भी क्यों न हो,
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सागर, नौका और नाविक
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