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________________ ऐसा ही एक और प्रसंग है, गणधर गौतम के जीवन का पंद्रह सौ तीन तापस भूख से पीड़ित हैं, जो उन्हें कैलाश पर मिलते हैं। बोध पाकर गौतम के साथ चल पड़ते हैं । किन्तु भूख से इतने अधिक जर्जर एवं क्षीणकाय हैं, चलें तो चलें कैसे ? गौतमस्वामी ने एक चुल्लू भर क्षीर-पायस से लब्धि का प्रयोग कर सभी तापसों को आकण्ठ तृप्त कर दिया। लब्धि का इस प्रकार प्रयोग भिक्षु के लिए निषिद्ध है। आज भी इसके लिए आगम की साक्षी उपलब्ध है परन्तु गौतम की करुणा ने उक्त निषेध की सीमा को लांघकर लब्धि का प्रयोग कर तापसों को पारणा करा ही दिया। लब्धि अर्थात चमत्कारी योग-शक्ति गौतम ने अपने किसी स्वार्थ विशेष की पूर्ति या यश-कीर्ति आदि के लिए कभी भी लब्धि का प्रयोग नहीं किया । परन्तु यह करुणा का क्षेत्र था, क्षुधा पीड़ितों का प्रश्न था अतः गौतम के उदास मन ने इस प्रसंग पर कुछ क्षणों के लिए भी इधर-उधर ननु नच नहीं किया । करुणा के लिए निषेध के सब द्वार विधि के रूप में खुल जाते हैं । अपने दुःखों के लिए तो प्राणी, जहाँ भी रहा है, रोता ही रहा है। नरक, पशु, पक्षी, जलचर, थलचर, मानव तथा देव सर्वत्र दुःख के क्षणों में कदन का प्रवाह अनंतकाल से बहता आया है और योनियों को तो जाने दीजिए, मानव जन्मों के ही दुःख में बहे आंसुओं को यदि एकत्र किया जाए, तो अजल से लाखों-लाख सागर भर जाएँ, फिर भी सब आँसू न समा सकें। परन्तु उन आंगुओं ने पाप को ही जन्म दिया, और पाप ने दुःखों को । दुःख से आँसू और आँसू से पुनः दुःख, यह एक ऐसी श्रृंखला बन जाती है कि जब तक विवेक की ज्योति प्राप्त न हो, तब तक यह कभी टूट न सकेगी। अतः अपने वैयक्तिक दुःख के प्रसंगों पर विवेक एवं धैर्य अपेक्षित है । पवित्र आँसू करुणा के होते हैं। ये वे आँसू हैं, जो पुण्य के हेतु है, अतः स्वयं अमुख व्यक्ति को भी सुख देते हैं, और जिस दुःखी के निमित्त से आँसू बहे हैं, उसे भी यथोचित सहयोग एवं आश्वासन के रूप में सुख अर्पण करते हैं। ये देहली पर के दीप हैं, जो अन्दर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करते हैं । तप का बहुत बड़ा महत्व है। जप का भी अपना एक महत्व है। प्रभु पूजा और प्रभु स्मरण की गरिमा भी कम नहीं है परन्तु मानवता को प्राणवान् बनानेवाली करुणा, मैत्री, सद्भावना एवं आत्मोपम्य दृष्टि की अपनी एक अलग ही विलक्षण महता है। 'दया के बिना सिद्ध भी कसाई है' यह लोकोक्ति बहुत ही अर्थगंभीर है तप जप आदि प्रायः व्यक्तिगत दुःख मुक्ति एवं सुख प्राप्ति की स्वार्थ-दिशा में प्रधावित हैं। स्पष्ट ही उसमें स्वार्थ की गन्ध है जब कि करुणा और करुणा से समद्भूत सेवा परार्थ की दिशा में गतिशील है। यहां चेतना, सद्भावना का विराट रूप लेती है, आत्मीयता का विस्तार करती है। इसी संदर्भ में एक लोककथा है एक आश्रम के सुदीर्घ उपवासी घोर तपस्वी और जन-सेवक किसी आकस्मिक दुर्घटना में मर कर स्वर्ग में गए। स्वर्ग में नवागन्तुकों का स्वागत समारोह हुआ। तपस्वियों को स्वर्गमुकुट पहनाये गए, जब कि जन सेवक को मणि, मुक्ता और रत्नों से अलंकृत स्वर्णमुकुट अर्पण किया गया। तपस्वियों ने विरोध किया, यह भेद-भाव कैसा ? इसकी अपेक्षा तो हम महान् हैं। उत्तर मिला, “जन सेवा ही महान् है । ये मणि- मुक्ता और कुछ नहीं है, जन सेवा में करुणा से बहे हुए आँसू ही हैं । करुणा का हर अश्रुकण मणि- मुक्ता बनता है ।" कौन आँसू मोती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only ६७ www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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