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मस्कराते रहते हैं, मानो अमृतरस का पान कर रहे हों। परन्तु ऐसे, महामानव जब कभी किसी और को दुःख से संतप्त देखते हैं, तो उनका हृदय का कण-कण द्रवित हो जाता है, बर्फ की तरह पिघल जाता है और तब सहज ही उनकी आँखों में से करुणा एवं सहानुभुति के पवित्र आँसू छलक जाते हैं। अनुकम्पा के आँसुओं का यह क्षण पवित्र क्षण है, मानव चेतना को शुभ की पावनगंगा में डुबकी लगाने का मंगलमय क्षण है, जन्म-जन्म के कलुष को धो डालने का महान्क्षण है। मानव की मानवता इन्हीं आँसुओं से सिंचित होकर जीवन पाती है। यदि मानव भी पर दु:ख कातर न हुआ, दूसरों को पीड़ित देखकर भी जिसका मन न पिघला तो उस मानव में और पश में क्या अन्तर रह जाता है, मानव और दानव में कौन-सी विभेद-रेखा बच पाती है? परस्परोपग्रह ही, अन्योऽन्य भावितत्त्व ही मानवता का लक्षण है। उक्त मानवता पर ही परिवार, समाज और राष्ट्र आदि को उत्तरोत्तर समष्टि रूप भावना का विकास हुआ है। मानव, मानव है। वह जंगल में अकेला भटकनेवाला पागल पशु नहीं है।
महायान की बौद्ध परंपरा में तो उक्त अनुकम्पा भावना का इतना अधिक विकास हुआ है कि बोधिसत्त्व निर्वाण भी नहीं लेना चाहता, मोक्ष की भी कोई इच्छा नहीं रखता। वह तो कहता है--"मोक्षेणारसिकेन् किम्?" अर्थात् निष्क्रिय अरसिक मोक्ष पाकर मुझे क्या करना है? मैं तो विश्व में बार-बार जन्म लेता रहूँ, पोड़ित प्राणि जगत् का कल्याण करता रहूँ, इसी में मुझे आनन्द है। संसार के जितने भी दुःखी प्राणी हैं, उन सबका दुःख मैं भोग लूं और मेरा सुख वे भोग लें, यह है उदात्त-चेतना बोधिसत्त्व की।
भारत का राजा रन्तिदेव राजा है, ऋषि-मुनि नहीं है, फिर भी वह कितना करुणाद्र है, कि इक्कीस दिनों की लम्बी भूख के बाद उसे भोजन उपलब्ध होता है, और वह उसी समय द्वार पर आए भख चाण्डाल को सहर्ष अर्पण कर देता है। और इसी अनुकम्पा की लहर में वह कहता है, मुझे राज्य नहीं चाहिए, स्वर्ग नहीं चाहिए और मोक्ष भी नहीं चाहिए। मैं तो एकमात्र यही कामना करता हूँ कि, दुःख से तप्त प्राणियों की पीड़ा दूर हो। मूल श्लोक है--
“नत्वहं कामये राज्यं,
न स्वर्ग नाऽपुनर्भवम् । कामये
दुःखतप्तानां, प्राणिनामाति - नाशनम् ॥"
भगवान् महावीर के दर्शन में धर्म का मूल है सम्यक्त्व। सम्यक्त्व है आत्म-दृष्टि । आत्म-दृष्टि का अर्थ केवल अपने शरीर में ही आत्मा की अनुभूति नहीं है। वह है विश्व के प्राणिमात्र में स्वतंत्र अस्तित्वरूप आत्मा की अनुभति । और, विश्व की समग्र आत्माएँ एक स्वरूप हैं, एक समान सुख-दुःख की अनुभूतिवाले हैं, यह आत्मौपम्य दृष्टि ही अहिंसा और करुणा का रूप है। अतः महावीर अनुकम्पा, पर-दुःख प्रहाणेच्छा को सम्यक्त्व का व्यावहारिक लक्षण बताते हैं। इस पर से स्पष्ट है कि पर-दुःख की अनुभूति से द्रवित होनेवाला मन किस उच्चतर भूमिका का मन है।
राज्य वैभव त्याग कर महावीर प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, एक वस्त्र लेकर साधना के पथ पर चल पड़ते हैं। उसी दिन एक दरिद्र ब्राह्मण आ जाता है, याचना करता है। महावीर उसकी दयनीय स्थिति से इतने अधिक करुणाद्रवित होते हैं कि तत्काल वस्त्र का अर्धभाग उसे दे देते हैं। जबकि भिक्षु को गृहस्थ के लिए ऐसा करना नहीं चाहिए। यहां महावीर की करुणा शास्त्रीय विधि-निषेधों से भी ऊपर हो जाती हैं। वह करुणा ही क्या, जो सामाजिक परिवेश को लक्ष्य में रखकर निरूपित किए गए शास्त्रीय शब्दों की घेराबन्दी में पड़कर निष्क्रिय हो जाए। भगवान महावीर के उक्त महादान के प्रसंग पर 'महावीर चरियं' के लेखक महान पूरातन जैनाचार्य गणचन्द्र के अक्षर लेख द्रष्टव्य हैं, जिन पर से स्पष्ट होता है कि सहज असीम करुणा से पूर्ण चित्त होकर भगवान् ने यह दान, भिक्षु को नहीं करने जैसा था, वह भी किया
“समुच्छलियापरिकलित कारुण्णपुण्णचित्तेण......जइ वि असारिच्छमेयं तहा वि......।"
सागर, नौका और नाविक
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