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सत्य हरिश्चन्द्र तारा अति ही नम्र भाव से, हाश मोड़ सब से बोली, "क्या बतलाऊँ मेरी बहनों ! तुम तो बिल्कुल हो भोली।
कोह अर्धांगिनि पति की'-शास्त्रकार की है वाणी, भूपति ऋण में बँधे, मुक्त मैं, नीति कौन-सी कल्याणी ? पतिव्रता की मर्यादा को, आप सर्वथा जान रहीं, पर वियोग के दुःख में विह्वल, दे न उसे सम्मान रहीं । पतिव्रता के जीवन में निज पति ही अन्दर - बाहर है, सर्वश्रेष्ठ आराध्य देव पति ही, सच्चा परमेश्वर है । नारी के जीवन में अपने सुख - दुःख का कुछ मूल्य नहीं, पति के सुख में सुखी दुःख में दुखी, और कुछ लक्ष्य नहीं । प्राणनाथ ठन - पथ को जाते, मैं कैसे रह सकती हूँ, सेवा का अनमोल सुअवसर, मैं कैसे तज सकती हूँ ?" तारा का सुन वचन, चित्त सब, महिलाओं का पिघल गया, धन्य - धन्य कह चरणों लोटी, करुणा का था दृश्य नया ।
राजा • रानी समझा कर, जब अपने पथ की ओर बढ़े, लक्षाधिक कण्ठों के जय - जय, घोष गगन की ओर चढ़े।
जीर्ण, मलिन - से वस्त्रों में भी राजा • रानी शोभित थे, मुख मण्डल पर दिव्य क्रान्ति थी,दिनकर-ज्योति विराजित थे। सत्य - तेज की महिमा अनुपम, तुच्छ सभी वस्त्राभूषण, विना धर्म के हो जाते हैं, भूषण भी आखिर दूषण । राजा को इस संकट में भी, हर्षित देख प्रजा गद्गद्, तारा की लख शान्ति - धीरता, कहा सभी ने बस है हद ।
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