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सत्य हरिश्चन्द्र
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मेरे से भी टूकर इनके शासन में सुख पाएँगे शान्त रहेंगे, अगर शीघ्रता का विप्लव न मचाएंगे संभव है कुछ गड़बड़ भी हो, पर उससे मत डरना तुम शान्त, सत्य का आग्रह रख प्रतिरोध यथोचित करना तुम। निर्बलता, कायरता सारे, दोषों की जननी होती, न्याय -सिद्ध निर्भयता से ही, विजय संकटों पर होती। हाँ, तो देर हुई जाती है, मुझे स्व - पथ पर बढ़ने दें, सौ - में - सौ नंबर बस मुझको पूर्ण प्रतिज्ञा करने दें। प्रेम हृदय की वस्तु , बाह्य जग - परिदर्शन से क्या लेना? आप यहीं पर रहें, साथ चल, कर तो व्यर्थ व्यथा देना। भूत पूर्व राजा की आज्ञा, लौटें अपने - अपने घर, सत्य कलंकित होता, यदि अब, बढ़े कदम आगे पथ पर । प्रेम यही है, सत्य पालिए, कष्टों से भय - भीत न हों, हरिश्चन्द्र तो इसमें खुश है, जीवन - लक्ष्य विगीत न हो।"
भूपति का आदेश प्रजा ने, रोते - रोते मान लिया, सत्य परिस्थिति जान व्यर्थ का, और नहीं हठवाद किया।
उधर देवियाँ तारा के चरणों, में विनती करती थीं, बार - बार रो-रो कर लोचन, अश्रु - वारि से भरती थी। "राजा प्रण से बँधे हमें, असहाय छोड़कर जाते हैं, सत्य, धर्म की रक्षा के हित, यह सब कष्ट उठाते हैं। दान, दक्षिणा के बन्धन में, बँधी नहीं तुम तो रानी ! फिर क्यों हमको छोड़ जा रही, बड़ी विकट है हैरानी।"
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