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________________ सत्य हरिश्चन्द्र मेरे मन में आप बड़े हैं, राज्य चीज उस बेचारा ? पतिव्रता पति हित ठकरती, स्वर्गों का भी सुख प्यारा । राज्यको मुभको दुःख क्यों होता, मैं अर्धांगिनि हूँ, दान · धर्म के अर्धभाग की न्याय सिद्ध अधिकारिणि हूँ।" "अच्छा, प्यारी ! मुझे यहाँ से कल प्रभात ही जाना है, एक मास के अन्दर ऋषि के ऋण का भार चुकाना है। अगर मास में ऋण न दे सका सत्य भ्रष्ट हो जाऊँगा, कौशिक ऋषि के क्रोधानल में वंश · सहित जल जाऊँगा। अस्तु, तुम्हारे लिए आज ही मैं प्रबन्ध कर देता हूँ, तुम्हें तुम्हारे पूज्य पिता के घर पर पहुंचा देता हूँ। तारा के मस्तक पर सहसा अम्बर - मण्डल टूट पड़ा, शत • शत वज्रपात - सा भीषण हुआ हृदय में दुःख बड़ा । कुछ क्षण रह नि:स्तब्ध कहा-"पतिदेव, आप क्या कहते हैं ? आत्मा के जाने के पीछे प्राण कहाँ कब रहते हैं ? पित्रालय में छोड़ हमें क्या स्नेह - सूत्र को तोडेंगे ? क्या सचमुच ही चिरदासी से आज निजानन मोड़ेंगे ? तन से छाया, और चन्द्र से स्वच्छ चन्द्रिका दूर नहींहो सकती, पत्नी भी पति से दूर त्रिकाल कदापि नहीं।" "तारा ! वनपथ औ' प्रवास का जीवन कितना संकटमय ? पद -पद पर अपमान यंत्रणा, नव्य प्रदेश सभी थल भय ! ठीक समय पर रूखे - सूखे भोजन का भी है टोटा, बाहर जा कर बन जाता व्यक्तित्व महत्तम भी छोटा ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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