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________________ सत्य हरिश्चन्द्र ७५ रोहित की क्या चिन्ता ? वह तो योग्य पिता का योग्य तनय, सब कुछ पायेगा निज बल से आने दो वह उचित समय ।" "राज्य मात्र ही नहीं, राज्य के साथ सभी पुरे डाला, फटी कौड़ी भी न पास में, रुकता क्या देने वाला ! नहीं रहा है खाने को, हाँ एक समय का भी भोजन, रहने को घर नहीं, और फिर ऊपर चढ़ा दक्षिणा ऋण ।" "प्राणेश्वर ! यह दान अलौकिक और न कोई दे सकता, सर्व समर्पण करने का गुरु - भार और क्या हो सकता? धन्य भाग्य हैं, सूर्यवंश का शुभ गौरव तुमसे चमका, क्षत्रिय जग में दान धर्म का उज्ज्वल मुख फिर से दमका । रहने - खाने की क्या चिन्ता ? पशु भी तो रहते - खाते, हम तो मानव सदा सत्य के बल पर आनन्द ही पाते !" "तारा ! तुम हो धन्य सर्वथा, धन्य तुम्हारे मात - पिता, मैं भी धन्य, मिली जो तुमसी श्रेष्ठ सहचरी धर्म - रता। सहानुभूति की मूर्ति मनोहर, कितना अविचल मन पाया, मैंने समझा दुःख पाओगी, किन्तु धैर्य दृढ़ दिखलाया ! शिक्षा लेंगी तुमसे आगे आने वाली महिलाएँ, विकट परिस्थिति में भी पति के चरणों पर कैसे जाएँ ?" "इसमें क्या है धन्यवाद की बात, प्राणपति ! बतलाएँ, हम महिला कर्तव्य - मार्ग से कैसे नाथ ! पिछड़ जाएँ ? मैंने तो पत्नी होने का अपना धर्म निभाया है, जो कुछ भी कर सकी प्रभो ! यह सभी तुम्हारी माया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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