SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदर्श पत्नी पति • पत्नी के प्रेम का भव्य मनोहर चित्र, पाठक देखें, भक्ति से उज्ज्वल करें चरित्र । हरिश्चन्द्र नृप स्वर्ण - महल की ओर प्रेम से बढ़ते हैं, किन्तु चित्त की स्थिति विचित्र है, पांव न आगे पड़ते हैं। आँखों के आगे रह - रह कर, तारा झलक दिखाती है, भोले-भाले रोहित की भी, याद हृदय अकुलाती है । "कौशिक को सर्वस्व दान दे दिया, नहीं कुछ भी चिन्ता, वज्र प्रकृति का बना हुआ हूँ,क्या निज सुख-दुख की चिन्ता? तारा - रोहित को लेकिन, निष्कारण झंझट में डाला, मुझको अपना सत्य निभाना, ये क्यों भोगें दुख - ज्वाला? विकट समस्या, इन्हें कहाँ किसके आश्रय में छोडूगा ? सब से बढ़ कर मृदुल स्नेह का बन्धन कैसे तोडगा ?" इस प्रकार चल संकल्पों की लहरों से लेते टक्कर, कम्पित तन से, कम्पित मन से पहुंचे महलों में नृपवर । पता चला जब दासी से तो उन्मन उपवन में आए, लता - कुञ्ज की ओट मातृ - सुत स्नेह मूर्ति बैठे पाए । तारा, सुत को गोद लिए आनन्द · सिन्धु में बहती है, रोहित की निर्द्वन्द्व स्वर्ण-सी मूर्ति खिल - खिला हँसती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy