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सत्य हरिश्चन्द्र
शिष्य वर्ग ने आज्ञा पाकर सभ्य
निकाल दिए, बाहर आए घोर निराशा की निज मुख पर छाप लिए । जनता को जब पता लगा अपमान और निष्फलता का, 'रौद्र रूप हो जाग उठा अति साहस अप • मंगलता का ।
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नेताओं ने कहा - " आप सब शान्त रहें, झगड़ा न करें, किसी तरह भी हो मन मथ कर, अब तो यह दुख सिन्धु तरें
राजा ने जब स्वयं राज्य का दान दिया, तब क्या करना ? कौशल का विधि वाम हुआ है, पड़ा अचानक दुख भरना । मानन को तो यत्न मात्र का स्वत्व मिला है जीवन में, फल मिलना, अधिकार परे की बात भाग्य के
बन्धन में ।”
राजा के गुण - गायन गाते, विवश प्रजा - जन लौट गए, 'स्वयं नृपति का दान' श्रवण कर चित्त उबलते शान्त हुए ।
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