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________________ ६४ सत्य हरिश्चन्द्र "तुम होते हो कौन बोच में, जाओ, अपना काम करो, राजा को खुश करने का यह लोग - दिखावा, दम न भरो ! मैं कोशिक हूँ, अतः सर्वथा मुझसे डरते दूर रहो, अगर अधिक बकवास करो तो मरने को मजबूर रहो।" "क्या कहते हैं लोग - दिखावा ? अटल सत्य का गर्जन है, मरने से हम तनिक न डरते व्यर्थ आपका तर्जन है । ऋषि होकर भी आप शान्ति से काम नहीं क्यों ले सकते ? कितनी घोर अनीति-रीति है, ध्यान नहीं क्यों दे सकते ? हम भूपति के और हमारे भूपति हैं, तुम होते कौन ? मनमानी न यहाँ संभव है, व्यर्थ न बोलें, रखिए मौन !" हरिश्चन्द्र ने कहा बीच में-"क्या कहते हो, शान्त रहो, ऋषिवर जो कुछ कहें, करें, वह शीष झुकाकर सभी सहो । दान दे चुका हूँ मैं, फलतः कौशल के ऋषि नायक हैं, आप सभासद हुए आज से ऋषि के राज्य - सहायक हैं । शासक और सभासद के सम्बन्ध मधुर वांछित जग में, कभी भूलकर आप न जाएँ असद् - भाव के कटु मग में।" विश्वामित्र क्रोध औ' छल के कारण तेजोहीन हए, सभ्यों का कुछ कर न सके ऋत बल के आगे क्षोण हुए। सभासदों के ऊपर का सब क्रोध धरापति पर बरसा, उबला, उछला, उझला अति ही क्षुब्ध पहाड़ी निर्जर-सा । "अरे कुटिल, क्या जाल ? इधर तो बना-राज्य देकर दानी, उधर प्रजा को भड़का कर विद्रोह कराता, अज्ञानी ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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