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________________ सत्य हरिश्चन्द्र ६३ जो कुछ करना होना होगा, तुझे व्यर्थ की चिन्ता क्या ? प्रजा - प्रेम के ढोंगी तेरी बता रही अब सत्ता क्या ? सारा राज्य आज से मेरा हुआ, कल से नई व्यवस्था होगी, होगी वीर सभासद् कटु वचनों को, सुनते सुनते श्रान्त हुए, रोक न सके स्वयं को आखिर दुर्नय से उत्क्रान्त हुए । बना में अधिकारी, नई प्रथा जारी !" " ऋषिवर ! यह क्या विकट सभ्यता, मर्यादा का लेश नहीं, उपकारी दाता को देते, शिष्ट कभी यों क्लेश नहीं ? आप साधु हैं, रहें साधु ही, क्यों स्व - साधुता भंग करें, निष्कारण केवल आग्रह - वश, क्यों भूपति को तंग करें ? अगर राज्य की इच्छा है, तो राज्य पा लिया भूपति से, ऊपर से क्या और दक्षिणा ? काम लीजिए सन्मति से । अगर स्वर्ण की मुद्राओं पर मन है तो हम से लीजे, नृप को कर ऋण मुक्त नगर में रहने की आज्ञा दीजे । - शासन - तंत्र व्यवस्थामय है, इसमें भी क्या परिवर्तन, अनुचित शासन सह न सकेंगे, हम कौशल जनपद के जन ।" देखा, पाठक वृन्द ! पूर्व का युग भी कैसा उन्नत है, सत्य -धर्म के आगे धन, जन, मान, प्रतिष्ठा तृणवत है । राज्य भ्रष्ट निज भूपति का सभ्यों ने कैसा पक्ष लिया ? सत्य पक्ष के लिए क्रुद्ध ऋषि कौशिक का भी भय न किया । Jain Education International आप जानते हैं कौशिक पर आग्रह का था भूत चढ़ा, क्रोधानल की ज्वालाओं की भीषणता का वेग बढ़ा | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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