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सत्य हरिश्चन्द्र
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"मांग रहा हूँ अखिल भूमि का राज्य और वैभव सारा, कहिए देते हैं कि नहीं? यह मांग बड़ी असि की धारा !" हरिश्चन्द्र के मुख - मण्डल पर एक नहीं सलवट आई, पुण्डरीक • से विकसित मुख से सस्मित वाणी सुन पाई। "मांग विकट क्या? तुच्छ राज्य है, अभी समर्पण करता हूँ, तन मांगें तो इसको भी मैं, देने का दम रखता हूँ।" हरिश्चन्द्र ने आज्ञा दी, प्रिय सेवक था आज्ञा - कारी, मिट्टी का लघु पिण्ड उपस्थित किया और जल की झारो।
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