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________________ ५४ कौशिकजो भी फँसे सम्मानित होने के " राजा को यदि दण्ड न दूँ तो मम अपमान भयंकर है, गौरव - गिरि हो जाए मेरा चूर चूर फिर कंकर है । सत्य हरिश्चन्द्र व्यर्थ ही ऋषि - गौरव की दल-दल में, पथ को खोज रहे हैं छल - बल में । मध्यस्थों से निर्णय का पथ नहीं भूल कर भी लूंगा, मुझ को दोषी बतलाएँगे, फिर कैसे मैं पलटेंगा ? - अस्तु, दूसरा पथ अपना कर इसको बाध्य येन केन रूपेण, बात मैं अपनी साग्रह मनवा लें !" - R अन्तर में रख कपट कल्पना बाहर सस्मित मुख बोले, "राजधर्म के पालन हित सुर - बाला के बन्धन खोले ?" "हाँ भगवन् ! बस किया वस्तुतः राज धर्म का ही पालन, अन्य न कोई गुप्त ध्येय था, करुणावश खोले बन्धन || " ७ बना डालू, "राजधर्म का पालन केवल इसी बात में होता है ? अथवा अन्य दिशा में भी कुछ उसका पालन होता है ?" "हाँ अवश्य, सर्वत्र सर्व विधि राज धर्म का पालन है, यदि छोड़ कर्तव्य एक भी, फिर कैसा नृप - जीवन है ?" Jain Education International · . "पता तुम्हें है ? राजधर्म में दान धर्म कितना सुन्दर ? नृप-सम्मुख की गई याचना, व्यर्थ न जाती है अणु भर !" "क्या कहते हैं पता ? पता तो सपने तक मैं रखता हूँ, यथा समय पालन करने का भी मैं दृढ़ बल रखता हूँ ।" "अच्छा हम याचक हैं, पूरी माँग हमारी करिएगा ।" "हाँ-हाँ, कहिए जो अभीष्ट हो, अच्छी तरह परखिएगा !" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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