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________________ अपने विचार कविता जीवन को व्याख्या है, आज इस सिद्धान्त पर कोई आपत्ति नहीं रह गई है। सुन्दर को असुन्दर से पृथक करना, सौन्दर्य की झांकी लेना और उसका रस प्राप्त करना-कविता के लिए 'बाल्टर पेटर' की समीक्षा भी इसी बात की पुष्टि करती है, जीवन का कोई तात्विक विरोध नहीं पैदा करती। रही 'सत्' की खोज, जो 'सत' की प्रेरणा मनुष्य मात्र के हृदय की स्वाभाविक वृत्ति है। मनुष्य मात्र सदाचार, सद्धर्म, सुप्रवृत्ति आदि से तृप्त होता है और उसके विपरीत गुणों से उसे घणा होती है। मनुष्य की मानसिक तृषा-शांति के लिए उसे सप्रवत्तियों की आवश्यकता अनिवार्य रूप से होती है। इस अवस्था में हम कविता को मानवअन्तःकरण का प्रतिबिंब मानकर, उसे 'सत्' से पृथक नहीं मान सकते । और, जो सत् है, वही शिव और सुन्दर भी है। प्रस्तुत पुस्तक सत्य हरिश्चन्द्र' जहाँ एक ओर कविता की व्याख्या में अपने में पूर्ण रचना है, वहाँ दूसरी ओर कर्म की भावना को प्रोत्साहन देकर हमें जीवन संग्राम में आगे बढ़ाने की भूमिका तैयार करने में भी कम महत्त्व नहीं रखती। हरिश्चन्द्र का जीवन मानव-जीवन में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। कविश्रीजी की बहुमुखी प्रतिभा ने उसे अपनी सहज अनुभूति, करुणा और चारित्र बल के सहारे और सुन्दर रूप दे दिया है । स्वांतः सखाय' की सीमा में, हम इसे 'बहुजन हिताय, 'बहुजन सुखाय' रचना मानेंगे। कविश्रीजी का कवि हृदय सत्य के महत्त्व को मानव - जीवन में एक पल के लिए भी भूल नहीं पाता है। मिट्टी का पुतला मानव किन उपकरणों को लेकर अपनी श्रेष्ठता का दावा कर सकता है, उसके साथ उसे श्रेष्ठ बना देने का कौन साधन है ? सभी ओर से उनका हृदय जागरूक है, सचेत है। वे अतीत के उत्कर्ष पर मुग्ध हैं, और वर्तमान की हीनता पर क्षुब्ध । वे जानते हैं, सत्य से दूर मानव - श्रेष्ठता का दावा व्यर्थ है, तभी तो कहते हैं "अखिल विश्व में एक सत्य ही, जीवन श्रेष्ठ बनाता है, बिना सत्य के जप, तप, योगाचार भ्रष्ट हो जाता है। [ ५ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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