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________________ सत्य हरिश्चन्द्र द्वार - पाल ने अन्दर जाकर कहा नृपति से - "हे प्रभुवर ! खड़े द्वार पर कौशिक ऋषिवर न्याय कराने की खातिर !" राजा स्तम्भित! विस्मित !! ऋषि क्या न्याय कराने आए हैं, ऋषियों को तो न्यायालय के द्वार निषिद्ध बताए हैं ! ४७ मेरे योग्य कार्य था यदि तो मुझे वहीं बुलवा लेते, स्वयं सभा में आते ऋषिवर कभी नहीं शोभा देते !" द्वार - पाल से कहा - "प्रतिष्ठा पूर्वक उनको ले आओ, सन्त किसी भी धर्म - वेष के हों सब की महिमा गाओ ।" कौशिक ज्यों ही न्यायालय में मस्त झूमते से आए, सभा - सहित नृप खड़े हुए, नत मस्तक सादर गुण गाए । सिंहासन से लगे उतरने तो कोशिक कर्कश बोले, धधक रहे थे लगे बरसने वचन रूप बम के गोले ! " राजन् ! रहने दें यह आदर, सिंहासन पर ही ठहरें, नमक डाल कर व्यर्थ जरूम पर उठा रहे दुःख की लहरें ! पूजा, आदर की अभिलाषा लिए नहीं मैं आया हूँ, राजा तुम हो, न्यायासन से न्याय माँगने आया हूँ !" क्रोध - गर्जना सुन कौशिक की सभी लोग भयभीत हुए, किन्तु सत्य के धनी नृपति तो अति निर्भय अति स्फीत हुए । गीत Jain Education International बताएँ शान्ति - सदन ऋषि राज ! क्रोध का क्या कारण है आज ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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