SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य हरिश्चन्द्र पुरी अयोध्या का राज - पथ, आज अतीव विकम्पित है, आस-पास दर्शक जनता का मन भी अति ही चिन्तित है। एक विकट तूफान उठा - सा आता है, मुनिवर क्या है ? होंठ कपाते, दाँत पीसते हुए स्वयं, यम भी क्या है ? देख क्रुद्ध कौशिक को आकुल - व्याकुल हैं सब नर - नारो, कौन काल के गाल पड़ा है, किस पर वक्र दृष्टि डारी। एक देव है मानव, जिनके मिलने से सब प्रमुदित हों, एक रुद्र दानव है मानव, देख जिहें सब दुःखित हों। सज्जन · दुर्जन दोनों जग में भिन्न प्रकृति के हैं स्वामी, एक जलज है कमल, एक है जौंक रक्त का अनुगामी। सर्प और दुमुही दोनों ही एक जाति के प्राणी हैं, किन्तु प्रकृति में महदन्तर है, सभी जानते ज्ञानी हैं। सर्प क्रुद्ध हो डस लेता है, प्राणों का होता ग्राहक, अतः सभी जन देख भयाकुल होकर बन जाते मारक ! किन्तु शान्त है दुमुही कैसी, नहीं किसी को कुछ कहती, खुश होते हैं घर वाले सब, जिनके घर में आ रहती ! मंगल शकुन समझ कर पूजा करते देखे नर • नारी, उधर सर्प की दुर्गति भी देखी है, निर्दय दुःख भारी । कोई पाता तिरस्कार तो कोई पाता आदर है, दोष नहीं है अन्य किसो का स्वयं प्रकृति पर निर्भर है। न्याय - सभा के द्वार • देश पर द्वार - पाल से बतलाए, अपने मन के भाव क्रोध की भाषा में ही समझाए। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy