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________________ बन्धन - मुक्ति तप बल से भी सत्य का बल है अपरंपार, हरिश्चन्द्र के सत्य की अब सुनिए भनकार ! लक्षाधिक वर्षों का उज्ज्वल चित्र उपस्थित करता हूँ, सत्यकीर्ति के द्वारा कलिमल दूर, मनः स्थित करता हूँ । हरिश्चन्द्र नृप पुण्य - वंश से ऋषभदेव के वंशज हैं, राजनीति के सद्गुण में भी उसी प्रभु के अंशज हैं । राजा हैं, पर किसी तरह का व्यसन नहीं है जीवन में, भूल गए हैं अन्य वृत्तियाँ सत्य - वृत्ति के पालन में । वह भी था क्या समाज प्रजा का हित राजा नित करते थे, स्वयं कष्ट सहते थे, लेकिन दुःख प्रजा का हरते थे । राज- कार्य से जब भी पाते समय भ्रमण को चल देते, दीन-दुखी से मिलते, आँखों दशा प्रजा की लख लेते । गर्व - शून्य करुणानिधि नृप के प्रजा सरल दर्शन पा कर, हर्षित होती, गर्वित होती, नभ गुंजाती 'जय' गा कर । आज कलियुगी भूप सत्य की दुनिया का सत्पथ भूले, उदासीन गत आदर्शों से विषय वासना में भूले । न्यायालय में दमन चक्र का राज्य निरन्तर चलता है, नित नव शोषण द्वारा वैभव पा कर चित्त मचलता है । दफ्तर की दुनिया है, कागज कलम घिसाये जाते हैं, अन्धकार बढ़ता जाता है, पग पग ठोकर खाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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