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सत्य हरिश्चन्द्र
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वर्षा में सव वृक्षावलियां हरी भरी हो जाती हैं, किन्तु जवासे की शाखाएँ नित्य सूखती जाती है। हाँ, तो वह शठ देव भूप की सत्य प्रशंसा सुन करके, बना राख अन्दर न ही - अन्दर अपने मन में जल करके । "कैसा है यह इन्द्र ? अन्न के कीट मनुज का दास बना, देवजाति से घृणा, अस्थि के पुतले से है स्नेह सना। हरिश्चन्द्र का सत्य अटल है, फिर भी मानव, मानव है, विचलित होते देर न लगती संकट में सब संभव है।
अभी अयोध्या नगरी जाकर हरिश्चन्द्र को देखू गा, पतित सत्य से कर,सुर पति को पल में लज्जित कर दूंगा।"
क्रुद्ध, क्षुब्ध हो जलता - भुनता अपने मन्दिर में आया, देख मुखाकृति विकट अप्सराओं का मन भी घबराया।
"नाथ, आज क्या कारण है ? हाँ,किस पर इतना कोप किया ? घृणा हुई जीवन से वि.सको सुप्त सिंह जो छेड़ लिया।" "आज सभा में प्राणवल्लभा तुम भी तो पहुंची होगी ? हरिश्चन्द्र की महिमा भी तो सुरपति - विहित सुनी होगी?"
"सुनी क्यों न ? हैं इन्द्र हमारे सत्य धर्म के अनुरागी, स्वर्गलोक है, ऐसा स्वामी पाकर अति ही बड़ भागी।"
"तुम न समझती" "समझा दीजे, इसमें भी क्या दूषण है ? जिस पर स्वामी क्रुद्ध हुए हैं, घटना बड़ी विलक्षण है।" "आज इन्द्र ने देव जाति को किया भयंकर अपमानित , अन्नकीट, फिर उसका इतना गौरव, यह कितना अनुचित ।
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