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सत्य हरिश्चन्द्र
एक मात्र भगवान सत्य की करुणा की ही सद्गति है। सत्य श्रवण की चीज नहीं है, वह तो जीवन में उतरे, तभी वस्तुतः उपयोगी हो, जीवन अथ से इति सुधरे । धन्य - धन्य वह जो कि सत्य की पूर्ण पालना करता है, जागृत तो क्या स्वप्न जगत में भी न वञ्चना करता है। स्वर्गलोक में सुर होकर भी नहीं सत्य पर हम चलते, किन्तु भूमि पर हरिश्चन्द्र से नर न कभी प्रण से हिलते। हरिश्चन्द्र की कृति, मति, वाणी नहीं सत्य से खाली है, तिल में तेल, दुग्ध में घृत की व्याप्ति समझने वाली है। हरिश्चन्द्र को सत्य - मार्ग से चलित कौन कर सकता है, भला कभी भी चन्द्र उष्ण, या रवि शीतल बन सकता है ? आओ मिल कर सभी सत्य के गौरव की गाथा गाएँ, हरिश्चन्द्र के चरणों में कर वन्दन पावन गति पाएँ !" देवराज का कथन श्रवण कर सभी हुए सुर आनन्दित, किन्तु, देवता एक कुटिल मति हुआ व्यर्थ ही उत्पीडित । सज्जन औ' दुर्जन का अन्तर स्पष्ट शास्त्र यह कहता है, 'एक प्रशंसा सुन हर्षित हो, एक शोक में बहता है।' प्राणों की आहुति देकर भी दुखिया का दुख दूर करे, हानि देखकर पर की, सज्जन अपने मन में झूर मरे ! दुर्जन की क्या उलटी गति है हानि देखकर खुश होता, हिम प्रस्तर ज्यों धान्य नष्ट कर खुद भी गल कर तन खोता।
हृदय कपट से, मुख दुर्वच से, नेत्र क्रोध से भरा हुआ, रहता है दिन रात दुष्ट का अन्तर जीवन सड़ा हुआ !
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