________________
आत्म-निवेदन
हरिश्चन्द्र का जीवन मानव - हित आदर्श रहेगा, युग - युग तक उससे आलोकित भारत वर्ष रहेगा ।
पत्नी बेची, विका स्वयं भी सत्य धर्म के कारण, धन्य - धन्य स्वीकार किया, हाँ असिधाराव्रत धारण ।
सत्यभक्ति - वश हरिश्चन्द्र का जीवन मैंने गाया, टूटे - फूटे शब्द - पात्र में सुधा - सार छलकाया ।
ET - कला कहाँ ? यह है भावुक उर की तुकबंदी, जब-तब इससे हुआ शान्ति में चित्त जरा आनंदी ।
अस्तु, शब्द पर बल न दीजिए भावों पर रहिएगा, हरिश्चन्द्र की निर्मल जीवन - गंगा में बहिएगा।
सज्जन सार ग्रहण कर लेते शब्दों पर न झगड़ते, राजहंस पानी को तज कर दुग्ध ग्रहण बस करते ।
कि बहुना, नित पठन श्रवण कर जीवन सफल बनाएँ, कवि श्रम की है यही कामना, सत्य-मार्ग अपनाएँ।
34॥५मान अमरमनि
सन्मति सदन लोहामंडी-आगरा दिनांक २२. १. ४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org