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________________ सत्य हरिश्चन्द्र स्वर्ण - पुच्छ मृग, शिशु रोहित के लिये अतीव अपेक्षित है, क्रीड़ा प्रिय है, बालक है, पर पैत्रिक - प्रेम उपेक्षित है।" राजा सहसा बोल उठा-हा, रानी, यह क्या कहती हो? कैसे निज भर्ता का निज - कृत तिरस्कार तुम सहती हो ? पितृ - हृदय की कोमलता को स्पष्ट न तुमने लख पाया, रोहित मेरा पुत्र, उपेक्षा भाव कहाँ क्या दिखलाया ? एक नहीं, शत स्वर्ण - पुच्छ के मृगशिशु मैं ला सकता हूँ, तुच्छ बात पर इतनी झंझट तुमको क्या कह सकता हूँ ?" तारा बोली- "अगर प्रेम है, नौकर से मत मँगवाएँ, शून्य वनों में सतत भ्रमण कर स्वयं आप ही ले आएँ । एक पक्ष की मर्यादा, मृगशिशु की शोध लगा लेना, पक्षानन्तर दासी को पतिदेव शीघ्र दर्शन देना।" हरिश्चन्द्र कुछ सैनिक लेकर चला अश्व चढ़ कानन को, वन्य - पवन से स्फतियुक्त दृढ़ होते देखा निज तन को। नाना विध पक्षी गण नभ में पंक्तिबद्ध होकर उडते, तरु - श्रृंगों पर कल - रव द्वारा पथिकों के मन को हरते । फल - फूलों से लदे द्रमों की शोभा अति ही सुन्दर है, गहरी छाया, श्रान्त क्लान्त के लिए स्वर्ण से बढ़कर है। एक - एक से सुन्दर पशु भी फिरते हैं लीला गति से, शशक और मृग कोमल वपु हैं, भद्र प्रकृति से आकृति से। ऋद्ध सिंह को भीम गर्जना आती है गिरि गह्वर से, मृग - पति बना शक्ति के बल पर कहती है कम्पित नर से । श्वेत स्वच्छ रजताकृति निझर उद्धत गति झर-झर बहता, पलभर का विश्राम न लेता, गण्ड शैल - टक्कर सहता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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