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सत्य हरिश्चन्द्र
तारा ! तुम तो मुझ से बढ़ कर, सदा धीरता रखती थी, जब भी ढीला होता मैं तब, तुम्हीं सत्य पर अडती थी । आज मोह में भूली कैसे, अपनी अविचल दृढ़ता को, तारा ! संभलो, करो शीघ्रतर, दूर मोह की जड़ता को ।"
भूपति के दृढ़ वचन श्रवण कर, तारा ने साहस धारा, धन्य सुधन्य दम्पती जग में, धर्म नहीं अपना हारा। " नाथ ! मोह में भूल गई थी, सत्य - धर्म के गौरव को, धन्य, आपने नष्ट किया, अज्ञान - भ्रान्ति के रौरव को !
यही ढाँपने वाली है ।
और नहीं कुछ पास, देव ! यह फटी पुरानो साड़ी है, मुझ गरीब दुखिया की, लज्जा अर्ध कफन दाह - कर्म रोहित का अब तो, न्याय-सिद्ध है कर दीजे ।"
कर के बदले में,
आधी अर्पण है लीजे,
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तारा ज्यों ही लगी फाड़ने, साड़ी का अंचल कर से, जय जय ध्वनि के साथ गगन से, त्योंही दिव्य पुष्प बरसे ! गंधोदक की वर्षा से, वह मृतक भूमि महकी अति ही, शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन से, बदली शीघ्र प्रकृति-गति ही ।
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देव वाद्य दुन्दुभि की मधुर ध्वनि से गूंजा दिग्-मंडल, स्वच्छ - नोल नभ में देवों का ठाठ जुड़ा मंजुल - मंगल | सत्य धर्म के विजय - गीत, सानन्द देवियों ने गाए, शोक - दृश्य परिलुप्त हुए, चहुं ओर हर्ष के घन छाए ।
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रोहित जाग उठा मूर्च्छा से किया मात-पितु को वन्दन, बही हर्ष की निर्मल गंगा, बना शीघ्र मरघट नन्दन ।
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