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________________ १५६ सत्य हरिश्चन्द्र पथ निजाशा का सजाया था, सुमन संकल्प से, हा ! पता क्या था कि बेटे, कांटे तू बो जाएगा? तारा घंटों क्रन्दन करती रही, शोक चहुं दिशि छाया, आखिर रोते और बिलखते धैर्य स्वयं दिल में आया ! बालक सारे चले गये थे, पास नहीं कोई भी जन, पवन शीश धुनती तरु गण से, साँय - साँय करता था वन । सूर्य देव भी निज कुल की दुःख - दशा देख कर घबराये, मुख-विवर्ण, बन गये हतप्रभ, अस्ताचल के प्रति धाये । घोर अमा की रात्रि कृष्णतम, अन्धकार फैला भीषण, घूक और जम्बुक का भैरव आरव होता था क्षण - क्षण ! अन्धकार - में - अन्धकार, धन काले अम्बर में छाये, भीषणता के जो भी थे दुश्चिह्न, सिमट कर सब आये। स्वर्ण-महल में फूल-सेज पर, शत-शत सखियों से परिवृत, शस्त्र-सुसज्जित शत-शत सैनिक दल से प्रतिदिन संरक्षित । शून्यारण्यानी में तारा वही आज कैसे रोती ? स्नेही सुत की लाश गोद में, रो-रो कर सुध - बुध खोती ! कोई भी न सान्त्वना देने वाला मनुज, अकेली है, कैसे सुत की दाह - क्रिया हो, उलझी वक्र पहेली है। धनवालो ! क्या खुश होते हो ? चाँदी की छन-छन सुन-सुन, अकड़ रहे हो, ऐंठ रहे हो, भोग रहे हो सुख चुन - चुन ! सदा कहाँ रहती है किसकी, दो दिन की फुलवारी है, चार दिनों का चाँदनी, आखिर तिमिर भयंकर भारी है। तारा के वैभव के आगे कुछ न तुम्हारा वैभव है, देख रहे हो दशा आज क्या, दृश्य बड़ा ही भैरव है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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