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________________ सत्य हरिश्चन्द्र १५५ रोहित ! इस दुनिया में आकर तूने क्या देखा - भाला ? राज वंश में जन्म लिया, पर पड़ा विपद से, हा पाला ? तुम तो कहते थे- माता, मैं होकर तरुण कमाऊँगा, पिता और तुमको जल्दी ही, बन्धन से छुड़वाऊँगा । -- बता आज हमको बन्धन से, कौन छुड़ाने आएगा ? हाय, दासता करने में ही, जीवन सब घुल जाएगा ? हा, तेरा यह पुष्प मृदुल तन, क्या अहि के डसने को था, शून्य विपिन में इक अनाथ की तरह हंत मरने को था ? हा हा ! पापी सर्प कहाँ वह, गया काट कर हत्यारा, आकर मुझको भी इस ले, अब किस पर जीएगी तारा ? चलो प्राण ! क्यों अटक रहे हो ? अब काहे की आशा है ? जीवन धन तो चला गया, अब आशा नहीं दुराशा है । " हा, हा नाथ ! देख लो अपने गोद खिलाए प्रिय सुत को, तुमने सौंपा, रख न सकी में, रत्न अमोलक अद्भुत को ! लज्जित हैं, अति लज्जित हूँ, में मुख कैसे दिखलाऊँगी ? रोहित को खोकर में पापिन, सम्मुख कैसे आऊँगी ?" गीत क्या खबर थी हाय ! मेरा भाग्य यों सो जाएगा ? आँख का तारा अचानक लुप्त यों हो जाएगा ? देख कर खुश हो रही थी- पुत्र क्या है, रत्न है, क्या पता था, एक दिन यों हाथ से खो जाएगा ? · रंग दे दे कर बनाये थे सुखों के चित्र क्या ? स्वप्न में भीं था न, रोहित यों कभी धो जाएगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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