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सत्य हरिश्चन्द्र माता, माता ! आज तुम्हारा, रोहित वन में मरता है, . काटा विषधर ने अणु - अणु में, जहर सवेग लहरता है । मन की इच्छा मन में लेकर, जाता है कुछ कर न सका, पिता और तुम को कर बंधन मुक्त, मोर से भर न सका ! माता ! तुम अज्ञात रूप से लो, निज सुत का अभिवन्दन, जाता हूँ, अब करता मेरा, स्वर्ग - शोक चिर अभिनन्दन ! प्रभो!प्रभो! तुम बस बालक पर, दया दृष्टि निज रखिएगा, पाप - दोष हों जो भी मेरे, क्षमा प्रेम से करिएगा। निःसहाय माता को चरणों में, हूँ छोड़ चला भगवन् ! सुत-वियोग-संकट सहने की, देना शक्ति उसे क्षण - क्षण !" भगवन् ! भगवन् !! करते करते, विष प्रभाव फैला तन में, तारा की आँखों का तारा, हा बेहोश, हुआ क्षण में ! बाल-मण्डली के कुछ बालक, दौड़े जा कर खबर करी, 'रोहित मरा सर्प ने काटा'- गूजी बाणी जहर - भरी ! बढाहत-सी मूच्छित होकर, पड़ी धरित्री पर तारा, जल - विहीन मछली के मानिंद, लगा तड़पने तन सारा ! कभी होश में आ जाती है, कभी मूर्छना होती है, सहस - सहस भालों के जैसी, दिल में पीड़ा होती है। "हा रोहित, हा पुत्र ! अकेली छोड़, मुझे तू कहाँ गया ? मैं जी कर अब बता करू क्या, ले चल मुझको जहाँ गया ! पिछला दुःख तो भूल न पाई, यह क्या वज्र नया टूटा, तारा तू निर्भागिन कैसी, भाग्य सर्वथा तव फटा।"
गीत हाय ! बेटा, क्या तूने बिचारी ? माता छोड़ी, हा ! कर्मों मारी !
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