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सत्य हरिश्चन्द्र
घट को लेकर गहरे जल में, चलिए घट उठ जाएगा, जल में वस्तु न भारी लगती, न्याय काम में आएगा !" भूपति ने बस इसी तरह से, घड़ा उठाया, और चले, पहुंचे ज्योंही श्वपच गेह पर, हन्त ! भाग्य से गए छले । देहली की ठोकर लगते ही घड़ा, कहीं - का - कहीं गिरा, खण्ड-खण्ड हो गया, सदन में जल ही जल सब ओर फिरा । भंगिनि भड़की, तड़की, उछली, गर्जी, और लगी बकने, "अरे दुष्ट घट फोड़ दिया, क्या देख रहा था तू सपने ? बड़ी देर में लेकर आया, और किया आकर यह जस, बतला पीऊँ क्या मैं तेरा खून, प्यास करती बेबस !" बरस रही थी भंगिनि, राजा खड़े हुए थे बिल्कुल मौन, नीच - प्रकृति के संग कलह कर क्लेश बढ़ाए नाहक कौन ? भंगो आ पहुंचा इतने में देखा, तो बिगड़ा, भड़का, 'अभी सर्वथा नाश करूगा, घातक विषतरु की जड़ का !'
दौड़ा लेकर छुरी मारने, भूपति ने आकर पकड़ा, "समझदार होकर भी यह, क्या करते हैं दुष्कर्म बड़ा ? महापाप नारी को हत्या, शास्त्रकार बतलाते हैं, वीर - पुरुष नारी के ऊपर, कभी न हाथ उठाते हैं।
और दूसरे इनका कुछ भी दोष नहीं, दोषी मैं हूँ, मुझ से घट फूटा है, स्वामो ! अविवेकी, क्लेशी मैं हूँ। गृह - लक्ष्मी हैं, अतः व्यवस्था, सभी तरह से हैं रखती, विना बात की हानि बड़े - से - बड़े जनों को भी खलतीं।" भंगिनि लज्जित बनी आप ही, देख भूप की सज्जनता, सज्जनता के आगे होतो, लज्जित आखिर दुर्जनता।
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