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सत्य हरिश्चन्द्र
भावुक था भंगी, पर भंगिनि, बड़ी कर्कशा नारी थी, भड़क पड़ी भंगी पर उलटी, नख-शिख तक कलहारी थी। काम नहीं कुछ लेना इससे, तो क्या सूरत देखगी, मुहर नाँच सौ देकर लाए, क्या चूल्हे में फूलगी ! कौड़ी - कौड़ी जोड़ भूख को, सहकर द्रव्य कमाते हैं, धर्मात्मा बनने की धुन में, यों बेदर्द लुटाते हैं !" भंगी ने हो ऋद्ध जोर से, कलहारी को फटकारा, मार रहा था, हरिश्चन्द्र ने, बड़ी कठिनता से वारा । प्रतिदिन राजा वीर श्वपच से कहते- "कुछ आज्ञा दीजे, छोटा - मोटा जो भी मेरे, योग्य काम करवा लीजे ! धर्म नहीं आज्ञा देता है, ठाली बैठे खाऊँ मैं, दास प्रथा-प्रतिकूल मार्ग यह, काम न जो कर पाऊँ मैं।" भंगी कहता-"क्या जल्दी है, काम कौन - सा लाऊँ मैं ? यह क्या काम आपका कम है, धर्म - वचन सुन पाऊँ मैं ?" . भंगिनि नित्य हृदय में कुढ़-कुढ़ और बहुत बड़ - बड़ करती, घृणा द्वेष की आग चित्त में प्रतिदिन नित्य नई भरती। भंगो था बाहर, भंगिनि से, एक दिवस आज्ञा मांगी, गर्ज उठी जैसे सोते से, ऋद्ध सिहिनी हो जागो । "अरे निखट्ट काम करेगा? धर्म - शास्त्र बस बतला दे, कब की बैठी हूँ प्यासी मैं, घड़ा एक पानी ला दे।" घड़ा बड़ा - सा लेकर भूपति, गंगा के तट पर आए, गंगा की निर्मल जल - धारा, देख - देख कर हरषाए।
उधर नीच वह विप्र - पुत्र भी तारा को तंग करता है, गंगा - जल लाने की आज्ञा, देकर खब अकड़ता है।
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