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दास हरिश्चन्द्र भी बन गए भंगी के घर दास,
किन्तु न छोड़ा सत्य का अपना दृढ़ विश्वास । सेवा का पथ जगती तल में, बड़ा कठिन बतलाया है, सेवा का व्रत असिधारा - सा, ऋषि - मुनियों ने गाया है । असि-धारा क्या, नट भी इस पर, हँसी-खुशी से चल सकते, सेवा-पथ पर तो सुरपति भी, डरते • डरते डग रखते। पद - पद पर अपमान - यंत्रणा बड़ी विकट सहनी पड़ती, बार-बार दुर्वाणी दिल में, भाले को मानिन्द गड़ती । धन्य - धन्य वे कर्मठ, ज्ञानी, वीर विश्व के सेवक हैं, देश, जाति, कुल और धर्म की, गरिमा के संरक्षक हैं। हरिश्चन्द्र भी सेवक बन कर, भंगी के घर पर आए, सत्य-धर्म की रक्षा के हित, अर्पण तन - मन कर आए। भंगी ने अपनी नारी से कहा- "बड़े ही सज्जन हैं, विपद् • ग्रस्त हैं, धर्म - शील हैं, ज्ञानी बड़े विलक्षण हैं । नौकर इनको नहीं समझना, सादर नित सेवा करना, अनुचित हो व्यवहार न कुछ भी इसका ध्यान सदा रखना। राजहंस का वाम भाग्य है, गाँव तलैय्या पर आया, किन्तु तलैय्या भाग्यवती है, अतिथि हंस सुन्दर पाया। ऋषि के ऋण में बंधे हुए थे, मुहर पांच सौ में लाया, सफल कमाई आज हुई है, श्रेष्ठ पुरुष घर पर आया ।"
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