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दासी
राज महल की वासिनी तारा ब्राह्मण - गेह,
धन्य, सत्य की पूर्ति में बेची अपनी देह |
भाग्य चक्र के परिवर्तन से, सब जग संकट पाता है,
पाप कर्म के दुष्फल पा कर,
रोते जन्म गँवाता है ।
वे क्षण
किन्तु सत्य के कारण जो, नर नारी दुःख उठाते हैं, भंगुर जग में अपना नाम अमर कर जाते हैं । संसृति में जितने भी अच्छे कार्य, कष्ट से साध्य सभी, बिना अग्नि में पड़े स्वर्ण का रूप, चमकता है न कभी 1 पापी बनने में दुःख क्या है ? कोई भी बन सकता है ! पर, धर्मी बनने में तन का शोणित, कण कण जलता है ! सत्य धर्म के लिए नृपति ओ' रानी संकट झेल रहे, संकट क्या, साक्षात् अग्नि की ज्वालाओं से खेल रहे ! ब्राह्मण का छोटा सा घर है, एक ओर बैठी तारा, धुंधला - सा इक दीप तिमिर से, काँप रहा है बेचारा ।
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भूल रही है खाना पीना हृदय अग्नि सा धधक रहा, आँखों के पथ पर आँसू का झर झर प्रबल प्रवाह बहा । पाठक सोच रहे हैं, अपनी पीड़ा से रानी चिन्तित, भ्रान्त धारणा है, रानी तो किसी और दुःख से दु
खित |
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"हा पतिदेव ! कष्ट है भीषण, तुमको छोड़ चली आई, दासी बनकर भी संकट को दूर नहीं मैं कर पाई !
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