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सत्य हरिश्चन्द्र
भंगी हो अथवा हो ब्राह्मण, भेद - दृष्टि का मूल्य नहीं, भंगी हो यदि सच्चरित्र तो, क्या वह ब्राह्मण - तुल्य नहीं ? हाँ तो मुझको नहीं देखना, मैं किसके कर बिकता हूँ, मुझको तो बस यही देखना, ऋण - बन्धन से छुटता हूँ।" "अधिक दुराग्रह ठीक नहीं है, जन्म-भ्रष्ट क्यों करता है ? भंगी बनकर सूर्य - वंश की, कीर्ति - नष्ट क्यों करता है? अब भी समझ, त्याग दे हठ को, कार्य ठीक बन जाएगा, सुत, पत्नी औ, राज्य-वैभव सब, तुझे पुनःमिल जाएगा !" "क्षमा कीजिए, अब न आपका दास वापस लौटेगा, मूर्ख नहीं है, जो अब ऐसा, स्वर्ण सुअवसर खो देगा। अभी लीजिए जो लेना है, सूर्य चमकता है अब भी, मेरा प्रण परिपूर्ण हो गया, भाग्य शेष है कुछ अव भी।" विश्वामित्र गर्ज कर बोले- "अरे गर्व क्या मन में है, अभी पता क्या कष्ट घोर - से - घोर दास - जीवन में है। कितना है परिणाम भयंकर हठ का जब तू जानेगा, ला क्या देता है धन - दौलत, नहीं मर्ख अब मानेगा !" भंगी को आवेश आ गया, मुहर पाँच सौ गिन दी झट, कहा-'और कुछ इच्छा हो तो ले लें, क्यों करते खटपट ?' हरिश्चन्द्र ने किया प्रेम से, ऋषि के चरणों में वन्दन, "क्षमा कीजिए, दयादृष्टि से, आशीर्वाद दीजे भगवन् ! अब तक रक्षा की निज प्रण की, आगे भी प्रण पूरा हो, हरिश्चन्द्र की यही प्रार्थना -स्वीकृत-पय न अधूरा हो।" कौशिक क्या कहते ? बस चुप थे, नृप भंगी के साथ चले, रवि भी मानों दुःखित हो कर, अस्ताचल की ओर ढले ।
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