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सत्य हरिश्चन्द्र तारा ने कर जोड़ कहा- "हे तात, सत्य मैं कहती हूं, सेवा में कुछ विघ्न न होगा, सत्य - प्रतिज्ञा करती हूँ।
रोहित तुमको नहीं जरा भी कभी कष्ट में डालेगा, छोटा - मोटा जो भी होगा काम शीघ्र कर डालेगा। और नहीं माँगूगी, रूखा - सूखा जो भी लधु भोजनमुझको देंगे, उसमें से ही खिला - पिला दूंगी भगवन् !" ब्राह्मण की स्वीकृति मिलते ही तारा ने प्रस्थान किया, हरिश्चन्द्र के मन ने भी सुत - पत्नी का अनुयान किया। पत्थर की मूरत से नृप को खड़े देख बोले कौशिक, "अरे,खड़ा दिङ मढ़ बना क्यों,चिन्ता कर ऋणकी नास्तिक! सूर्य अस्त होता है, तुमको ऋण की कुछ भी फिक्र नहीं, पत्नी - सुत के मोही, क्यों अब गवित प्रण का जिक्र नहीं ! मात्र पांच सौ मुहरें दी हैं, इस पर यों निश्चिन्त खड़ा, अभी पांच सौ और चाहिए, प्रश्न वहीं - का - वहीं अड़ा । अगर नहीं दे सकता है तो अब भी मान कहा मेरा, भूल मान ले, अभी मिटाये देता हूँ, झगड़ा तेरा। रानी छुट जायेगी, तू भी कौशल - पति बन जाएगा, क्या रखा है, झूठी हठ में, वृथा कष्ट ही पाएगा।" कौशिक ने सोचा था- "रानी गई, भूप घबराया है, सत्य - छोड़ना मान जाएगा, शोक भयंकर छाया है।" किन्तु भूप ने अति दृढ़ता से निर्भय हो प्रतिवचन दिया, ऋषि की कल्पित आशाओं पर बिल्कुल पानी फेर दिया। धर्मवीर नर संकट पा कर और अधिक दृढ़ होता है, कन्दुक चोट भूमि की खाकर दुगुना उत्प्लुत होता है ।
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